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________________ २७६ दान : अमृतमयी परंपरा एक अश्रदालु दानदाता ने याचकों के प्रति, दान के प्रति अश्रद्धा और दान लेने वालों के प्रति बेरुखी बताई थी, उसका एक नीतिज्ञ ने कितना सुन्दर उत्तर दिया है, देखिए । - इस भूतल पर मैं अकेला ही राजा (दाता) हूँ और याचक एवं भिक्षक तो लाखों हैं। मैं किसको और क्या-क्या दे सकूगा? इस प्रकार की चिन्ता करना व्यर्थ है। क्या इस संसार में प्रत्येक याचक को दने के लिए एकएक कल्पवृक्ष है ? क्या प्रत्येक कमल को खिलाने के लिए एक-एक सूर्य है ? अथवा प्रत्येक चातक को पानी पिलाने के लिए अथवा प्रत्येक लता और पौधे को सींचने के लिए एक-एक बादल हैं ? निश्चित है कि संसार में ऐसा कुछ नहीं है। प्रत्युत एक ही कल्पवृक्ष अनेक याचकों की चिन्ता मिटाकर यथेष्ट वस्तु दे देता है। एक ही सूर्य लाखों कमलों को अकेला विकसित कर देता है और एक ही मेघ अनेक चातकों की पिपासा मिटा देता है तथा अनेक बेलों एवं पौधों को अपना पानी देकर उन्हें समृद्ध बना देता है। इसलिए दान देने वाले के मन में यह चिन्ता भी व्यर्थ है कि मैं अकेला कैसे इतने याचकों को दे सकता हूँ? __ आचार्य बृहस्पति ने भारतीय संस्कृति का आदर्श रखते हुए दाता को सुन्दर परामर्श दिया है - - अपने पास थोड़ा-सा पदार्थ हो तो उसकी चिन्ता मत करो, उस थोड़े-से में से भी थोड़ा-थोड़ा रोज दो, पर दो अदीन मन से, मन में ग्लानि न लाते हुए, दीनता प्रदर्शित न करते हुए या स्पष्ट शब्दों में कहें तो अपने अभावों का रोना न रोते हुए दो । थोड़ा देने में तुम्हारी कृपणता नहीं कही जाएगी। कृपणता तो तब है, जब अपने पास होते हुए भी इन्कार कर जाए, दे नहीं । तर्क १. एकोऽयं पृथिवीपतिः क्षितितले, लक्षाधिका भिक्षुकाः । किं कस्मै वितरिष्यतीति किमहो एतवृथा चिन्त्यते ? आस्ते किं प्रतियाचकं सुरतरुः प्रत्यम्बुजं किं रविः ? किं वाऽस्ति प्रतिचातकं, प्रतिलतागुल्मञ्च धाराधरः? २. स्तोकादपि च दातव्यमदीनेनान्तरात्मना । अहन्यहनि यत्किञ्चित्कार्पण्यं न तत्स्मृतम् ॥
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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