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________________ दान की विशेषता २६१ 1 उसे देखने गई थी । वहाँ तो भूखों व याचकों को ऐसे ही आटे की रोटी बनाकर दी जाती है । मैंने सुना है कि परलोक में वैसा ही मिलता है, जैसा यहाँ दिया जाता है । दानवीर कहलाने के लिए वर्ष के अन्त में आपकी दुकान में जो न बिकने योग्य घुन लगा हुआ सड़ा अनाज बचा रहता है, उसे ही अन्नसत्र में भेजते हैं । बेचारे भूखे लोग पेट की आग बुझाने के लिए खा लेते हैं । किन्तु मुझे विचार आता है कि आप उसे कैसे खा सकेंगे, जब परलोक में आपको भी ऐसी ही रोटी सदा मिला करेगी। इसलिए आज मैंने अन्नसत्र से आटा मँगाकर उसकी रोटी बनाकर परोसी है, जिससे आपको अभी से ऐसी रोटी खाने का अभ्यास हो जाय और परलोक में भी अगर ऐसी रोटी मिलेगी तो आपको उससे घृणा नहीं होगी ।" बहू की इस बात का सेठ जी के हृदय पर इतना अच्छा प्रभाव पड़ा कि उसी समय उन्होंने अन्नसत्र का सारा अन्न फिंकवा दिया और अच्छे अन्न का प्रबन्ध कर दिया । इस प्रकार पुत्रवधू के विनयपूर्ण साहस ने सेठ का हृदय बदल दिया । उनका अहंभाव भी नष्ट हो गया और सात्त्विक दान धारा प्रवहमान हो उठी । भूदान के सिलसिले में जब संत विनोबा और उनके कार्यकर्ता भारत के विभिन्न प्रान्तों में पदयात्रा करते हुए लोगों को भूमिदान की प्रेरणा देते थे, तब बहुत से जमींदारों ने अपनी फालतू पड़ी हुई बंजर भूमि भूदान में दे दी । बहुतसे लोग अन्धे या विक्षिप्त याचकों को अपने पास फालतू पड़े हुए और न चलने वाले खोटे सिक्के दे देते थे। कई बार ऐसे दान, जो प्राणघातक होते हैं, दाता और आदाता दोनों का अनिष्ट कर डालते हैं। आदाता का तो उस प्रकार के पदार्थ के खाने से एक ही बार प्राणान्त होता है, लेकिन दाता का तो उस कुत्सित दान के फलस्वरूप बार-बार अनन्त संसार में असंख्य वर्षों तक जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण और दारुण दुःख का सामना करना पड़ता है । ज्ञाताधर्मकथांग में उल्लिखित नागश्री ब्राह्मणी के द्वारा धर्मरूचि जैसे पवित्र महान् अनगार को कड़वा तुम्बा दान में देने का जिक्र हम पहले कर चुके हैं । नागश्री के द्वारा यद्यपि उत्कृष्ट सुपात्र को दान दिया गया था, किन्तु देयवस्तु प्राणघातक तक थी और दाता नागश्री के भाव भी कुत्सित थे, इसलिए देय वस्तु के घृणित होने से सारा दान दूषित हो गया और उसे नरक की यात्रा करनी पड़ी। I 1
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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