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________________ २५६ दान : अमृतमयी परंपरा विशिष्ट मनुष्यों से संबंध, इत्यादि बाह्य लाभ भी होते हैं । इसलिए श्रद्धापूर्वक दान देना। (३) सत्कारतः - दान लेने वाले व्यक्ति के प्रति हृदय में सत्कार रखकर, उसका सम्मान करके, उसके प्रति आदरभाव रखकरके दान देना, हादिक उल्लास सहित देना, परन्तु लेनेवाले के प्रति तिरस्कार-अपमान या तुच्छ व्यवहार करके दान नहीं देना। (४) कालतः - योग्य अवसर पर दान देना । जैसे वर्षाकाल में वर्षी हुई बरसात अनेकगुना धान्य की वृद्धि के हेतु बनती है। और बिना अवसर पर वर्षी हुई बरसात खड़ी फसल का भी विनाश करता है। इसी तरह लेने वाले को जब जरूरत हो तभी दान देना तथा देने वाला का वीर्योल्लास बढ़ा हो तभी दान देना । (५) मतिविशेषतः - बुद्धिपूर्वक दान देना, कौन से जीव की कितनी पात्रता? कौनसे जीव को क्या ज्यादा उपकारक होगा? उस वस्तु का उसे दान देना, अर्थात् कौनसा जीव कितना उत्तम ? किस तरह दान किया जाए जिससे लेनेवाले को ज्यादा लाभदायक हो सके इत्यादि चिंतन-मनन करनेवाली बुद्धिपूर्वक दान देना। (६) अकामादिविषयेण : - काम अर्थात् इच्छा, अकाम अर्थात् अनिच्छा, बदले में कोई वस्तु लेने की इच्छा रखनी नहीं । यदि बदले की वृत्ति अर्थात् देकर के कुछ पाने की अपेक्षा रखेंगे तो सांसारिक व्यवहार की तरह जिसे दिया हो उसके प्रति राग-द्वेष पैदा होगा। यदि बदला चुका देगा तो राग होगा, यदि बदला न चुका पाएगा तो द्वेष होगा। इसलिए बदले की इच्छा बिना ही दान देना। (७) वृत्त्यनत्यनन्तरं - वृत्ति = आजाविका को अन् + अति + अनन्तरं = अतिशय उल्लंघन किये बिना दान देना । अपनी आजीविका अतिशय टूट नहीं जाए (जरा भी हानि नहीं पहुंचे) उस तरह विचारपूर्वक दान देना ।
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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