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दान : अमृतमयी परंपरा
"रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुँ माँगन जाहिं । उनते पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ।।
रहिम ने ऐसे याचक और ऐसे कृपण दाता दोनों को मृतवत बताया । ऐसा अहंकारी दाता भी अवसरवादी बन जाता है । वह जिधर यश या प्रसिद्धि का पलड़ा भारी देखता है, उधर ही दान धारा को मोड़ देता है, अन्यथा इन्कार कर देता है दान देने से । इसीलिए गुप्तदान लौकिक और लोकोत्तर दोनों कोटि के दानों में उत्कृष्ट है।
कुरानशरीफ (२/२६४) में भी दान की विधि पर प्रकाश डालते हुए . कहा है -
“ऐ ईमान वालों ! अपने दान को एहसान जताकर या तकलीफ पहुँचाकर बर्बाद मत करो।"
__जब व्यक्ति दान के साथ एहसान जताता है, तब वहाँ दान के साथ अहंकार, आसक्ति या बड़प्पन का भाव आ जाता है, जो दान का विकार है। इसीलिए एक पाश्चात्य विचारक हुट्टन ने कहा है -
___ "जो दान अपनी कीर्तिगाथा गाने को उतावला हो जाता है, वह दान नहीं, अहंकार एवं आडम्बर मात्र है।"
बौद्ध धर्मशास्त्र में दान की विधि के चार अंग बताए हैं -
सत्कारपूर्वक दान दो, अपने हाथ से दान दो, मन से दान दो और ठीक तरह से दोषरहित दान दो। ___ यहूदी धर्मग्रन्थ-यालकत शिमे ओनी (प्रो. ९४७) में कहा है -
"अपना कर्ज़ न चुकाकर या अपने नौकरों को पूरी तनख्वाह न देकर दान देना गलत है।"
इसी सन्दर्भ में भारतीय नीतिकारों ने अपनी हैसियत से उपरान्त दान देने को उचित नहीं बताया है। जैसा कि चाणक्य नीति में कहा है -
१. सक्कच्चं दानं देथ, सहत्था दानं देथ ।
चित्तीकतं दानं देथ, अनपविद्धं दानं देय ।। – दीघनिकाय २/१०/५