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________________ दान के भेद-प्रभेद . २३९ होगा । शुभ योग से ही पुण्यबंध होता है। एक बार कालोदायी श्रमण ने भगवान महावीर से पूछा कि "जीवों को सुख रूप शुभ फल (पुण्य) की प्राप्ति कैसे होती है?" उत्तर में भगवान महावीर ने बताया - "कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणाकम्मा कल्लाणफलविवाग संजुत्ता कज्जंती।"१ - कालोदायी ! जीवों द्वारा किये गये शुभ कर्म ही उनके लिए शुभ फल देने वाले होते हैं। वास्तव में धर्म क्रिया द्वारा, शुभ प्रवृत्ति द्वारा दो कार्य निष्पन्न होते हैं - अशुभ कर्म की निर्जरा और शुभ कर्म का बंध । अर्थात् पाप का क्षय और पुण्य का बंध । पाप-क्षय से आत्मा उज्ज्वल होती है और पुण्यबंध से जीव को सुख की प्राप्ति होती है। पुण्य की परिभाषा ही यही है - . "सुहहेउ कम्मपगइ पुन्नं ।' २ - सुख की हेतु भूत कर्म प्रकृति पुण्य है। पुण्य के सम्बन्ध में पहली एक सर्वसम्मत मान्यता तो यह है कि पुण्य भी बंध है, कर्म संग्रह है और मोक्षकामी जीव के लिए वह बंधन रूप होने से त्याज्य ही है। पाप लोहे की बेडी है और पुण्य सोने की बेड़ी है। बेड़ी टूटने से ही मुक्ति होगी चाहे सोने की हो या लोहे की । किन्तु यह भी सभी आचार्यों ने माना है कि पहले लोहे की बेड़ी तोड़ने का प्रयत्न करना चाहिए अर्थात् पापनाश के लिए ही पुरुषार्थ करना चाहिए । पुण्य-क्षय के लिए कोई भी समझदार व्यक्ति प्रयत्न नहीं करता और न यह उचित ही है। क्योंकि पुण्य का भोग ही पुण्य का स्वतः क्षय करता है अतः मुक्तिकामी को पुण्यबंध के हेतु भूत-शुभ कर्मों का आचरण करना चाहिए। दूसरी एक मान्यता है जिसमें दो मत हैं । एक परम्परा है - जो शुभ कर्म, धर्माचरण, दान, सेवा, दया, उपकार आदि कार्य से धर्म भी मानती है और १. भगवतीसूत्र ७/१० २. श्री देवेन्द्रसूरि कृत नवतत्त्व प्रकरण, गाथा २८
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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