________________
२३८
दान : अमृतमयी परंपरा
दान से पुण्य : एक विश्लेषण दान के बारे में इतना विवेचन करने के बाद सहज ही प्रश्न उठता है कि क्या दान में एकान्त धर्म ही होता है या जहाँ धर्म नहीं, वहाँ पुण्य भी हो सकता है ? इसके बारे में हमारे ऋषि महर्षियों के तथा आगमों में क्या विचार है? हम संक्षेप में इस पर विचार करते हैं।
भारतीय संस्कृति के सभी चिन्तकों ने पुण्य-पाप के सम्बन्ध में विस्तार से चिन्तन किया है । मीमांसक दर्शन ने पुण्य-साधन पर अत्यधिक बल दिया है। उनका अभिमत है कि पुण्य से स्वर्ग के अनुपम सुख प्राप्त होते हैं । उन स्वर्गीय सुखों का उपभोग करना ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है, पर जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है। मोक्ष का अर्थ है - पुण्य-पाप रूप समस्त कर्मों से मुक्ति पाना । यह देहातीत या संसारातीत अवस्था है। जब तक प्राणी संसार में रहता है, देह धारण किया हुए हैं; तब तक उसे संसार व्यवहार चलाना पड़ता है। पाप कर्म से प्राणी दुःखी होता है, पुण्य कर्म से सुखी। प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, स्वस्थ शरीर, दीर्घ आयुष्य, धन-वैभव, परिवार, यश-प्रतिष्ठा आदि की कामना प्राणी मात्र की है। सुख की कामना करने से सुख नहीं मिलता, किन्तु सुख प्राप्ति के कार्य सत्कर्म (धर्माचरण) करने से ही सुख मिलता है। उस सत्कर्म को ही शुभ योग कहते हैं । आचार्य उमास्वाति ने कहा है -
"योगः शुद्धः पुण्यास्रवस्तु पापस्य तद्विपर्यासः ।" २
- शुद्ध योग पुण्य का आस्रव (आगमन) करता है और अशुद्ध योग पाप का।
शुभयोग शुभ भाव अथवा शुभ परिणाम तथा सत्कर्म प्रायः एक ही अर्थ रखते हैं। केवल शब्द व्यवहार का अन्तर है।
मतलब यह हुआ कि सुख चाहने वाले को शुभ योग का आश्रय लेना १. कुत्स्नकर्म वियोग लक्षणो मोक्षः । - तत्त्वार्थ. १/४८ (सर्वार्थसिद्धि) २. उमास्वातीय नवतत्त्व प्रकरणं (आश्रवतत्त्व प्रकरण)