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दान : अमृतमयी परंपरा
किन्तु वे दूसरों को उपदेश देकर या कहकर तो दिला ही सकते हैं। इसका उत्तर षट्खण्डागम की धवला टीका में दिया गया है - उन जीवों को अरिहंत न तो बाह्य पदार्थों का दान दे सकते हैं और न ही दिला सकते हैं, क्योंकि उनके अभी लाभान्तराय कर्म का उदय है, इसलिए बाह्य पदार्थों का लाभ (प्राप्ति) उन्हें नहीं हो सकता ।
क्षायिकदान के सम्बन्ध में एक और प्रश्न उठाया गया है कि ' क्षायिकदान जैसे अरिहंतों में होता है, वैसे सिद्धों में भी होना सम्भव है, क्योंकि वे भी दानान्तराय आदि सभी कर्मों का सर्वथा क्षय कर चुके हैं, फिर वे संसारी जीवों को अभयदानादि क्यों नहीं देते ? इस प्रकार की शंका सर्वार्थसिद्धि (टीका) में उठाई गई है, जिसका समाधान वहाँ किया गया है कि सिद्धों में क्षायिकदानादि होते हुए भी अभयदानादि का प्रसंग प्राप्त नहीं होता, क्योंकि अभयदांनादि के होने में शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म के उदय की अपेक्षा रहती है, मगर सिद्धों के शरीर नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म नहीं होते, अतः उनमें अभयदानादि प्राप्त नहीं होते ।
बौद्धशास्त्रों में वर्णित दो दान :
यद्यपि बौद्धसाहित्य में विविध दृष्टियों से दान के अनेक भेद बताए हैं, किन्तु अंगुत्तरनिकाय (२/१३/१) में महात्मा बुद्ध ने मुख्यतया दो प्रकार के दान बताए हैं.
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भिक्षुओ ! दो दान हैं - भौतिकदान और धर्मदान (आमिसदानं च धम्मदानं च) । इन दोनों में धर्मदान श्रेष्ठ है । धर्मदान की महिमा बताते हुए धम्मपद (२५/२१) में कहा गया है -
" सव्वं दानं धम्मदानं जिनाति सव्वं रसं धम्म रसो जिनाति ।"
धर्मदान सब दानों से बढ़कर है। धर्म का रस सब रसों से श्रेष्ठ है। धर्मदान के तीन रूप हैं अभयदान, संयति (सुपात्र) दान और १. यदि क्षायिकदानादिभावकृतमभयदानादि, सिद्धेष्वपि तत्प्रसंग: ।
नैष दोषः, शरीरनामतीर्थंकरनाम कर्मोदयाद्यपेक्षत्वात् तेषां तदभावे तदप्रसंग: ॥
- सर्वार्थसिद्धि २/४/१५५/१
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