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दान के भेद-प्रभेद
२३५ करते हैं ? इसका समाधान करते हुए आवश्यकनियुक्ति (११०३) में कहा है -
"जं तेहिं दायव्वं तं दिन्नं जिणवरेहिं सव्वेहिं ।
दसण-नाण-चरित्तस्स, एस तिविहस्स उवएसो॥"
- तीर्थंकरों ने जो कुछ देने योग्य था सब दे दिया है। वह समग्रदान है - दर्शन, ज्ञान और चारित्र का उपदेश ।
____वास्तव में तीर्थंकर और केवलज्ञानी जब तक सिद्ध नहीं होते, उससे पहले-पहले शरीर से जितना भी उपकार संसारी जीवों का कर सकते हैं, करते हैं। परन्तु वे धन, खाद्य पदार्थ, वस्त्र या अन्य कोई चीज स्वयं रखते नहीं, वे स्वयं आहारादि जिस वस्तु का उपयोग करते हैं, वह भी संग्रह करके रखते नहीं
और वह भी गृहस्थ से याचना करके लेते हैं, इसलिए याचित वस्तु का दान वे कैसे कर सकते हैं ? जो जिस वस्तु का याचक है, वह उस वस्तु का दाता कैसे बन सकता है? इसीलिए तीर्थंकरों के पास जो वस्तुएं हैं - ज्ञान, धर्म, अभय, बोधि आदि उसी का वे दान कर सकते हैं और करते हैं। इसीलिए शक्रस्तव (नमोत्थुणं) के पाठ में अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मग्गदयाणं, बोहिदयाणं, धम्मदयाणं अभयदानदाता, चक्षु (ज्ञान) ज्ञानदाता (मार्ग के दाता) (राहबर-पथप्रदर्शक), बोधि (सम्यक्त्व या सम्यग् दर्शन) के दाता, धर्म (सूत्र-चारित्ररूप धर्म) के दाता उन्हें कहा गया है। यही कारण है कि तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका (२/४/१५४/४) में आचार्य पूज्यपाद ने तथा राजवार्तिक (२/४/२/१०५/ २८) में क्षायिकदान का लक्षण इस प्रकार किया है -
“दानान्तरायस्यात्यन्तक्षयादनन्त प्राणिगणानुग्रहकरं क्षायिकमभयदानम् ।"
- दानान्तराय कर्म के अत्यन्त क्षय से अनन्त प्राणिगणों का उपकार करनेवाला अभयदान रूप क्षायिकदान होता है।
एक प्रश्न इस सम्बन्ध में फिर उठाया जाता है कि अरिहंतों के दानान्तराय कर्म का तो सर्वथा क्षय हो गया है, फिर वे सभी जीवों को इच्छित अर्थ क्यों नहीं दे देते ? माना कि वे अपने पास धन आदि पदार्थ नहीं रखते,
१. अरहंता खीणदाणंतराइया सव्वेसि जीवाणं मिच्छिदत्थे किण्ण देंति ?
ण, तेर्सि जीवाणं लाहंतराइयभावादो । - धवला १४/५, ६; १८/१७/१