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दान : अमृतमयी परंपरा
सब दानों मे श्रेष्ठदान है । अभयदान देने वाला दूसरे पदार्थों के दाताओं की अपेक्षा अधिक त्याग करता है, उत्सर्ग करता है और अपने जीवन को दया और करुणा की भावना से ओतप्रोत करके कार्य करता है । परन्तु सभी अभयदानी एक सरीखे नहीं होते । कई अभयदानी अपने जीवन में एक या दो प्रसंगों पर ही अभयदान दे पाते हैं, ऐसे लोग प्रायः गृहस्थ होते हैं, वे सभी इतनी उच्च कोटि का त्याग या उत्सर्ग कर नहीं सकते । कुछ गृहस्थ जीवों को अभयदान प्रत्यक्ष नहीं दे सकते, परन्तु परोक्ष रूप से दूसरों को पैसा देकर अभयदान दिला सकते हैं। हालांकि उन्हें भी अभयदानी कहा जा सकता है, परन्तु वे इतनी उच्च कोटि के अभयदानी नहीं माने जा सकते । इसलिए हम अभयदान को दो कोटियों में विभाजित कर देते हैं
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(१) पूर्ण अभयदान, (२) प्रासंगिक अभयदान |
पूर्ण अभयदान वह है, जिसमें अभयदाता वही हो सकता है, जो आजीवन अभयदाता बनकर किसी भी जीव को न तो स्वयं पीड़ा पहुँचाता है और न दूसरों से पीड़ा दिलाता है और न ही पीड़ा देने वालों का समर्थन करता है । साथ ही वह जिंदगी भर के लिए ऐसे अभयदान के प्रसंगों के लिए उत्तरदायी रहता है । पूर्ण अभयदानी बनने के लिए स्वयं निर्भय होना और दूसरों को भयमुक्त करना आवश्यक है । स्वयं निर्भय होने के लिए व्यक्ति में अहिंसा, सत्य, आत्म-बल और आत्म-विश्वास पर्याप्त मात्रा में होना आवश्यक है। साथ ही परमात्मा में उसकी पूर्ण आस्था होनी चाहिए। दूसरों को भयमुक्त बनाने के लिए व्यक्ति को शस्त्रास्त्र, अन्याय, अत्याचार, शोषण, निर्दयता, ज्यादती आदि भयवर्द्धक बातों का त्याग करना आवश्यक है । पूर्ण अभयदानी को छोटे से छोटे जन्तु के प्रति भी आत्मीयता होनी चाहिए । भगवद्गीता में अभयदानी भक्त का लक्षण बताते हुए यही बात कहीं है -
“यस्मान्नोद्विजते लोको, लोकान्नोद्विजते च यः । हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तौ यः स च मे प्रियः ॥"
जिससे जगत् भय न पाता हो, साथ ही जो स्वयं जगत् से भय न खाता हो तथा जो हर्ष, क्रोध और भय के उद्वेगों से मुक्त हो, वही भक्त मुझे प्रिय
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