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दान के भेद-प्रभेद
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करना । यह तो स्पष्ट है कि मृत्यु कोई भी प्राणी नहीं चाहता, सभी प्राणी जीना चाहते हैं । इसीलिए दशवैकालिकसूत्र में स्पष्ट कहा है
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" सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविडं न मरिज्जिउं ।"
- सभी जीव (सुख से) जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता । आचारांगसूत्र में तो अन्तरात्मा की एकता के आधार पर इस बात को साफ-साफ बताया है - " तू जिसको मारना चाहता है, वह और कोई नहीं, तू ही है । तू ही वह है, जिसे तू सताना चाहता है। तू ही वह है, जिसे गुलाम बनाकर बंधन में जकड़ना चाहता है । तू वही है, जिसे तू भयभीत करना चाहता है ।" ये सब अभयदान के प्रेरणामंत्र है । अभयदानी दूसरे प्राणी की पीड़ा को अपनी पीड़ा जानता है, दूसरे के दुःख और भय को अपना दुःख और भय समझता है ।
राजगृह में महाराज बिम्बसार के महल के विशाल मैदान में यज्ञवेदी लगी हुई थी, जिसके चारों और ब्राह्मण जोर-जोर से वेद-मन्त्रों का उच्चारण कर रहे थे । पास में ही ऋत्विज् चमकती हुई छुरी हाथ में लिए खड़ा था । निर्दोष मेंढा थरथर काँप रहा था । महाराज बिम्बसार दोनों हाथ जोड़े खड़े थे और आहुति की घड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे । ज्यों ही ऋत्विज् का छुरा पकड़ा हुआ दाहिना हाथ ऊँचा उठता है, त्यों ही मेंढे के मुँह से चीख निकलती है । इतने में ही तथागत बुद्ध दौड़कर आते हैं और चादर में मेंढे को छिपाते हुए कहते हैं "पुरोहित ! ठहर पुरोहित !" सुडौल कान्तिमान शरीरवाले कुमार को देखते ही सब आश्चर्यमग्न होकर स्तब्ध हो जाते हैं। ऋत्विज् के हाथ से छुरा छूटकर नीचे गिर जाता है। कुछ देर बाद राजा बिम्बसार ने रोष भरे स्वर से कहा - "परम्परा से प्रचलित मगध राजकुल की प्रथा के विरुद्ध उँगली उठाने वाले मानव ! बता तू कौन है ? मगधेश्वर की उपस्थिति में साहस करने वाले नादान से मैं उत्तर चाहता हूँ। कितने प्रयत्नों से निकाले हुए शुभ मुहूर्त में दी जाने वाली आहुति की शुभ घड़ी को टालकर तूने कितना गम्भीर अपराध किया है ? इसका कुछ भान है तुझे ? इस अपराध की सजा क्या हो सकती है, यह तो जानता है न ?” बुद्ध - "जानता हूँ राजन् । इसका लेखा-जोखा मैंने पहले से कर लिया है। हजारों १. ऐस यज्ञ करके पशुओं की बलि देते थे, तब तक महाराजा बिम्बसार जैन धर्मावलम्बी नहीं थे ।
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