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ने कहा - दान देना ही आमदनी का एकमात्र द्वार है । पाश्चात्य चिन्तक विक्टर ह्यगो ने लिखा है - ज्यों - ज्यों धन की थैली दान में खाली होती है दिल भरता जाता है.
"As the purse is emptied the heart is filled."' 3ta "Give without a thought."
प्रार्थना मन्दिर में जाकर प्रार्थना के लिए सौ बार हाथ जोड़ना उत्तम भावना है परन्तु एक बार दान के लिए हाथ ऊपर उठाना उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। — तत्त्वार्थसूत्र में वाचकवर्य श्री उमास्वाति जी ने लिखा है
___'अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्'
अनुग्रह का अर्थ है अपनी आत्मा के अनुसार होने वाला उपकार का लाभ । अपनी आत्मा को लाभ हो इस भाव से किया गया कोई कार्य यदि दूसरे के लाभ में निमित्त हो तब यह कहा जाता है कि पर का उपकार हुआ। वास्तव में अनुग्रह स्व-का है, पर तो निमित्त मात्र है। अर्थात् स्व के अनुग्रह के लिए जो त्याग किया जाता है वह दान है । देकर भूल जाना यह भी दान की विशिष्ट पद्धति है।
प्रत्येक मनुष्य का यह अनुभव है कि देने में उसको आनंद प्राप्त होता है, चाहे वह धन के रूप में दे या मदद के रूप में या सहानुभूति के रूप में ह्ये । इसी भावना को ग्रीक्स The love of Fellow men कहते हैं ।
वास्तव में दान देने वाले का हृदय इतना उदार और नम्र हो जाता है कि उसमें क्षमा, दया, सहनशीलता, संतोष आदि दिव्य गुण स्वतः ही प्रकट हो जाते हैं । मनुष्यों के लिए वेदों में 'अमृतस्य पुत्राः' कहा गया है। भगवान महावीर और श्रमणों ने ऐसे दिव्य गुणशाली गृहस्थ के लिए 'देवानुप्रिय' (देवों का प्यारा) शब्द का प्रयोग किया है। इसका अर्थ यही है कि दान देने से व्यक्ति में उदारता आदि दिव्य गुण स्वतः होते जाते हैं।
जैन दर्शन के तीर्थंकर दीक्षा से पूर्व वर्षीदान करते हैं । ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त सभी तीर्थंकरों ने दान दिया था । उनका तर्क यह