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________________ 20 . दान गुण की अनुप्रेक्षा भारतीय धर्मदर्शन और संस्कृति में दान को अत्यधिक महत्व दिया गया है। यह मानव जाति का आधारभूत तत्त्व है । मानव का ही नहीं पशुपक्षियों का भी वह जीवन तत्त्व हैं । दान के बिना उनकी जीवन गति ही अवरुद्ध हो जाती है। इसीलिए मनुष्यों के लिए 'दान' का उपदेश सर्व प्रथम उपदेश माना गया है । 'दान' मनुष्य के सह-अस्तित्व, सामाजिकता और अन्तर्मानवीय सम्बन्धों का मूल घटक है। कहीं पर वह 'संविभाग', कहीं 'समविभाग', कहीं 'त्याग' और कहीं 'सेवा' के रूप में प्रकट होता है । 'दान' इसलिए नहीं दिया जाता कि इससे व्यक्ति बड़ा बनता है, या प्रतिष्ठा पाता है या उसके अहंकार की तृप्ति होती है अथवा परलोक में स्वर्ग तथा समृद्धि मिलती है। किन्तु 'दान' में आत्मा की करुणा, संवेदना, स्नेह, सेवा, बंधुत्व जैसी पवित्र भावनाएँ लहराती है । दान से मनुष्य की मनुष्यता तृप्त होती है। देवत्व की जागृति होती है और ईश्वरीय आनन्द की अनुभूती जगती है। केलविन कूलिज ने भी कहा है - "No person was ever honoured for what he received honour has been the reward for what he gave." प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक चक्रवर्ती भरत, दुष्यन्त, हरिश्चन्द्र, पुरुरवा, एल, नल, नघुष, राम, कर्ण, युधिष्ठिर आदि अनेक श्लाघनीय दानी हुए हैं, परन्तु वे सब के सब दानी के दान द्वारा प्राप्त कीर्ति से ही अमर हुए । इसलिए उनके दान ने उन्हें इतना गौरव दिलाया कि वे जनता के हृदय में चिरस्थायी हो गए। यह कहना कि 'दान' का महत्व भारतवर्ष में ही अधिक है, गलत
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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