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________________ १८५ दान के भेद-प्रभेद प्राथमिक आवश्यकता है । वस्त्र के बिना तो चल भी सकता है। दिगम्बर मुनि निर्वस्त्र रहते हैं। परन्तु आहार के बिना उनका भी काम नहीं चलता । यहाँ तक कि तीर्थंकर जैसे उच्चतम साधक को भी अन्ततः आहार लिए बिना कोई चारा नहीं है । मुनियों, महाव्रती श्रमणों एवं त्यागियों का आहार गृहस्थ पर ही निर्भर है। इसलिए गृहस्थ के लिए आहारदान आदि को ही परम धर्म माना गया है। आहारदान का महत्त्व समझाते हुए पद्मनन्दि पंचविंशतिका में बताया है - - - समस्त प्राणी सुख चाहते हैं और वह सुख स्पष्टतः मोक्ष में ही है। वह मोक्ष सम्यग्दर्शन आदि रूप रत्नत्रय के होने पर ही सिद्ध होता है । वह रत्नत्रय निर्ग्रन्थ साधु के होता है। उस साधु की स्थिति शरीर के निमित्त से होती है, शरीर भोजन से टिकता है और वह भोजन श्रावकों के द्वारा दिया जाता है। इस प्रकार इस अतिशय क्लेशयुक्त काल में भी मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति प्रायः उन सद्गृहस्थ श्रावकों (आहारदानियों) के निमित्त से होती है।' . साधु को आहार देने वाला एक तरह से धर्म, त्याग, नियम आदि का बल देता है इस बात को आचार्य कार्तिकेय अपने ग्रन्थ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्पष्ट करते हैं - - भोजनदान (आहारदान) देने पर समझ लो, पूर्वोक्त तीनों (औषधदान, शास्त्रदान एवं अभयदान) दान दे दिये । क्योंकि प्राणियों को भूख और प्यास रूपी व्याधि प्रतिदिन होती है। भोजन के बल से ही साधु रात-दिन शास्त्र का अभ्यास करता है और भोजनदान देने पर प्राणों की भी रक्षा होती है। तात्पर्य यह है कि साधु को भोजनदान क्या दे दिया, सद्गृहस्थ ने वास्तव में उसे ज्ञान, ध्यान, तप, संयम, धर्म, नियम आदि में पुरुषार्थ करने का बल दे दिया। १. सर्वो वाञ्छति सौख्यमेव तनुभृत्तन्मोक्ष एव स्फुटम् । दृष्ट्यादित्रय एव सिद्धयति स तन्निर्ग्रन्थ एव स्थितम् ॥ तवृत्तिर्वपुषोऽस्य वृत्तिरशनात् तद्दीयते श्रावकैः । काले क्लिष्टतरेऽपि मोक्षपदवी प्रायस्ततो वर्तते ॥ - पद्मनन्दि पंचविंशतिका-७/८ २. भोयणदाणे दिण्णे तिण्णि वि दाणाणि होति दिण्णाणि । भुक्ख-तिसाए वाही दिणे-दिणे होंति देहीणं ॥ भोयणबलेण साह सत्थं सेवेदि रत्तिदिवसं पि। भोयणदाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया होति ॥ - कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३६३-३६४
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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