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— दान : अमृतमयी परंपरा का वर्गीकरण भावना अथवा मनोवृत्ति के आधार पर ही किया गया है।
अब हम क्रमशः उक्त तीनों का लक्षण देकर संक्षेप में उस पर विचार करेंगे। सात्त्विक दान का लक्षण :
___ सर्व प्रथम सात्त्विकदान को ही ले लें । सात्त्विकदान ही उच्च कोटि का दान है। इस दान के पीछे दाता में दान के बदले किसी प्रकार की यश, प्रतिष्ठा, प्रसिद्धि या धन आदि के लाभ की कामना नहीं रहती । निःस्वार्थ और निस्पृह भाव से ही यह दान दिया जाता है । इस प्रकार के दान का दाता अत्यन्त विवेकी होता है । वह देश, काल, पात्र की परिस्थिति, योग्यता और आवश्यकता के अनुसार दूसरों को दान देता है। आदाता भी बहुत ही पवित्र और उपकृत भावों से उसे ग्रहण करता है, वह भी लिए हुए दान से धर्मार्जन करता है, दान पाकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना एवं स्व पर कल्याण साधना के लिए पुरुषार्थ करता है, उस दान को लेने वाला स्व-पर श्रेय के लिए उद्यम करके दान को सार्थक कर देता है । इसीलिए सात्त्विकदान का लक्षण किया गया है -
"जो दान देश, काल (स्थिति) और पात्र देखकर जिसने कभी अपना उपकार नहीं किया है, ऐसे व्यक्ति को भी, 'इसे देना मेरा कर्तव्य है', यह समझकर दिया जाता है, उस दान को सात्त्विकदान माना गया है।"१ सात्त्विक कोटि के दान में दाता की श्रद्धा, भावना और शुद्धि की मनोवृत्ति, कर्त्तव्यबुद्धि आदि उन्नत
और जागरूक होती है। इसीलिए गृहस्थाचार्यकल्प पं. आशाधरजी ने जैन धर्म के मूर्धन्य ग्रन्थ सागारधर्मामृत में सात्त्विकदान का लक्षण उद्धृत किया है -
"जिस दान में अतिथि (लेने वाले) का हित-कल्याण हो, जिसमें पात्र का परीक्षण या निरीक्षण स्वयं किया गया हो, जिस दान में श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, आत्मीयता, अनुग्रह बुद्धि आदि समस्त गुण हों, उस दान को सात्त्विकदान कहते हैं।"२ ऐसा सात्त्विकदान दाता और आदाता दोनों का कल्याण करता है । इस १. दातव्यमिति यद्दानं, दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च, तद्दानं सात्त्विकं विदुः ॥ - गीता १७/२० २. आतिथेयं हितं यत्र, यत्र पात्र परीक्षणं ।
गुणाः श्रद्धादयो यत्र, तद्दानं सात्त्विकं विदुः ॥ - सागारधर्मामृत ५/४