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षष्ठ अध्याय
भावना के अनुसार दान का वर्गीकरण
सच पूछा जाये तो दान का मुख्य सम्बन्ध भी भावों के साथ होता है। भावों का तार जुड़ने पर जिस प्रकार की और जैसी प्रेरणा दान की होती है वह दान वैसा ही कहलाता है। क्या जैन धर्म, क्या बौद्ध धर्म और क्या वैदिक धर्म, सभी धर्मों में भावों के आधार पर दान का वर्गीकरण किया गया है। दान को नापने और उसका प्रकार निर्धारित करने का थर्मामीटर भाव हैं। इसलिए दान में दी गई वस्तु उतनी महत्त्वपूर्ण नहीं मानी जाती, जितनी महत्त्वपूर्ण उसके पीछे दाता की वृत्तियाँ, भावना मानी जाती हैं । वृत्ति से ही दान की किस्म का पता चलता है। चन्दनबाला ने भगवान महावीर को सिर्फ मुठ्ठीभर उड़द के बाकुले दान में दिये थे, परन्तु उन थोड़े से, अल्प मूल्य उड़द के सीजे हुए बाकुले के पीछे भावना उत्तम थी और बड़ी ही श्रद्धा, भक्ति, निःस्वार्थता और निस्पृहता से वे दिये गये थे । इसी कारण उस दान के साथ देवों ने 'अहोदानं, अहोदानं' की घोषणा की थी। एक रंक से रंक व्यक्ति भी शुद्ध, निःस्वार्थ एवं प्रबल भक्तिभावना से दान देता है, तो चाहे उसकी देयवस्तु बहुत ही अल्प हो, अल्प मूल्य की हो, सामान्य हो, मगर उस दान का मूल्य अत्यन्त बढ़ जाता है।
दान में वस्तु न होकर अन्तःकरण ही मुख्य है।
भावना एवं मनोवृत्ति के अनुसार विद्वानों ने दान को तीन श्रेणियों में निर्धारित किया है - सात्त्विक, राजस और तामस ।
भगवद्गीता में सात्त्विकदान, राजसदान और तामसदान की स्पष्ट व्याख्या की गई है। वैसे ही सागारधर्मामृत आदि जैन ग्रन्थों में भी इन तीनों की विशद व्याख्या मिलती है। परन्तु यह निश्चित है कि इन सबमें इन तीन कोटि के दानों