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भारतीय संस्कृति में दान
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माना जाता है। मनुष्य जीवन से सम्बन्ध बहुविध सामग्री उसमें उपलब्ध होती है । साधुजीवन और गृहस्थजीवन के सुन्दर सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। उसमें यथाप्रसंग अनेक स्थलों पर दान की महिमा का उल्लेख हुआ है । इसके अतिरिक्त अन्य काव्य ग्रन्थों में, कथात्मक ग्रन्थों में और चरित्रात्मक ग्रन्थों में भी दान की गरिमा का और दान की महिमा का कहीं पर संक्षेप में और कहीं पर विस्तार में वर्णन किया है। जैन परम्परा के नीति-प्रधान उपदेश ग्रन्थों में तथा संस्कृत और प्राकृत के सुभाषित ग्रन्थों में और धर्मग्रन्थों में भी दान का बहुमुखी वर्णन उपलब्ध होता है । कुछ ग्रन्थ तो केवल दान के सम्बन्ध में ही लिखे गये है । अत: दान के विषय पर लिखे गये ग्रन्थों की बहुलता रही है । नीतिवाक्यामृत और अर्हन्नीति जैसे ग्रन्थों में अन्य विषयों के प्रतिपादन के साथसाथ दान के विषय में भी काफी प्रकाश डाला गया है, जो आज भी उपलब्ध होता है।
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संस्कृत साहित्य के नीति- प्रधान ग्रन्थों में भर्तृहरि कृत श्रृंगार शतक, वैराग्यशतक तथा नीतिशतक जैसे मधुर नीति काव्यों में मनुष्य-जीवन को सुन्दर एवं सुखद बनाने के लिए बहुत कुछ लिखा गया है । भर्तृहरि ने अपने दीर्घ जीवन के अनुभवों के आधार पर जो कुछ भी लिखा था, वह आज भी सत्य एवं जनप्रिय माना जाता है । उनके शतकत्रय में दान के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा गया है । उन्होंने दान को अमृत भी कहा है। दान मनुष्य-जीवन का एक श्रेष्ठ गुण कहा गया है। मनुष्य के आचरण से सम्बन्ध रखने वाले गुणों में दान सबसे ऊँचा गुण माना गया है। एक स्थान पर कहा गया है - "मनुष्य के धन की तीन ही गति हैं – दान, भोग और नाश।" जो मनुष्य न दान करता हो, न उपभोग करता हो, उसका धन पड़ा-पड़ा नष्ट हो जाता है । संस्कृत के नीति काव्यों में “कविकण्ठाभरण" भी बहुत सुन्दर ग्रन्थ है । उसमें दान के विषय में विस्तार से वर्णन किया गया है । 'सुभाषित रत्नभाण्डागार' एक विशालकाय महाग्रन्थ है, जिसमें दान के विषय में अनेक प्रकरण हैं । 'सुक्ति सुधा संग्रह' सुभाषित वचनों का एक सुन्दर संग्रह किया गया है । उसमें दान के सम्बन्ध में बहुत लिखा गया है । 'सुभाषित सप्तशती' में भी दान के विषय में बहुत सुभाषित कथन मिलते हैं । 'सूक्ति त्रिवेणी' ग्रन्थ भी सूक्तियों का एक विशालकाय ग्रन्थ