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________________ १३८ दान : अमृतमयी परंपरा सत्कारपूर्वक दान दो, अपने हाथ से दान दो, मन से दान दो और ठीक तरह से दोषरहित दान दो। जो व्यक्ति सहृदय होते हैं, दूसरों के दुःखों को देखकर पिघल जाते हैं, वे दान दिये बिना रह ही नहीं सकते । उनके हृदय में दान की प्रेरणा सहज होती है। वास्तव में दान देने के लिए विवेकी व्यक्ति को बाहर की प्रेरणा की जरूरत ही नहीं पडती । उसकी अन्तरात्मा ही स्वयं उसे दान देने की प्रेरणा करती है, जिसे वह रोक नहीं सकता। सन् १९४० की बात है जैन समाज के प्रसिद्ध कार्यकर्ता श्री ऋषभदासजी रांका अपने एक मित्र से मिलने गये हुए थे। वे दोनों मित्र बातें कर रहे थे, इतने में एक व्यक्ति आया और दुःखित चेहरे से लाचारी बताते हुए बोला – “सेठजी ! इस समय मैं बहुत दुःखी हूँ। मुझे खराब बीमारी हो गई है। दवा के लिए और खाने के लिए भी पैसे पास में नहीं है । कृपा करके मुझे कुछ मदद कीजिए।" रांका जी के मित्र ने पेटी खोलकर मुट्ठी में जो कुछ आया, उसे दे दिया। रांका जी यह देख रहे थे। वे चुप न रह सके, बोले - "आपने यह क्या किया? वह तो चरित्रहीन और दुराचारी था।" उनके मित्र ने कहा – “मैं यह अच्छी तरह जानता हूँ, लेकिन वह दुःखी था । उसका दुःख मुझसे नहीं देखा गया, इसलिए मैं इसे (दान) दिये बिना रह ही न सका।" यह था अन्तः प्रेरणा से दान, जिसे रांकाजी के मित्र रोक न सके। तथागत बुद्ध की भाषा में अन्तरात्मा में दूसरी आत्माओं के प्रति श्रद्धा बढ़ाने के लिए दान देना अत्यावश्यक है - "दानं ददतु सद्धाय, सीलं रक्खंतु सव्वदा । भावनाभिरता होंतु एतं बुद्धान सासनं ।।" .. - आत्म-- श्रद्धा बढ़ाने के लिए दान दो, शील की सर्वदा रक्षा करो और भावना में अभिरत रहो, यही युद्धों का शासन (शिक्षण) है। मनुष्य जो भी उर्गत करत है, उरमें समाज का भी भाग है और समाज
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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