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________________ दान से लाभ ११७ राजा और इन्द्र तक नतमस्तक हो गए थे तथा जो साधु आदि पवित्र चतुर्विध संघ के शिरोमणि त्रिभुवनस्वामी तीर्थंकर हैं ऐसे तीर्थंकर का भी हाथ जिस दान के अनुग्रह से गृहस्थ (दाता) के हाथ से नीचे रहता है, उस दान की हम स्तुति करते हैं। प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक चक्रवर्ती भरत, मान्धाता, दुष्यन्त, हरिश्चन्द्र, पुरूरवा, ऐल, नल, नघुष, राम, कर्ण, युधिष्ठिर आदि अनेक श्लाघनीय दानी हुए हैं, परन्तु वे सब के सब दानी के दान द्वारा प्राप्त कीति से ही अमर हुए । इसलिए उनके दान ने उन्हें इतना गौरव दिलाया कि वे जनता के हृदय में चिरस्थायी हो गए। प्रातः स्मरणीय वही होता है, जो उदार हो, दानी हो । जो स्वार्थी और लोभी बनकर धन जोड़-जोड़कर रखता हो, उसका तो कोई नाम भी नहीं लेना चाहता । यही कारण है कि लोग प्रातःकाल दानी राजा कर्ण, हरिश्चन्द्र एवं तीर्थंकर आदि दानवीरों का नाम ही लेना चाहते हैं । वे पुरुष गौरवान्वित होते हैं, जो अपने सुखसामग्री, सम्पत्ति एवं शक्ति दूसरों को लुटाते हैं, देते हैं। दान की भावना चाहे हृदय से होती हो, दान की योजना चाहे मस्तिष्क से तैयार होती हो और दान देने का उत्साह चाहे मन से पैदा होता हो, लेकिन दान का सक्रिय आचरण हाथ से ही होता है। इस हाथ में दान देने की जो अपार शक्ति संचित है, उसे व्यर्थ के कार्यों में नष्ट करके वे लोग हाथ की क्रियाशक्ति को, हाथ के द्वारा सम्भव होने वाले जादू को खत्म कर देते हैं। इसीलिए एक मनीषी ने प्रत्येक मानव के लिए यह प्रेरणासूत्र प्रस्तुत किया है। ___ "हाथ दिये कर दान रे।" . - मानव ! तेरे प्रबल पुण्य बल ने अथवा ईश्वर कर्तृत्व की दृष्टि से कहें तो ईश्वर ने तुझे हाथ दिये हैं, उनसे दान कर । . एक पाश्चात्य विचारक ने तो यहाँ तक कह दिया है कि "प्रार्थना मन्दिर में प्रार्थना के लिए सौ बार हाथ जोड़ने के बजाय, दान के लिए एक बार हाथ खोलना अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस दृष्टि से प्रार्थना के लिए हाथ जोड़ने की अपेक्षा दोनों हाथों से दान
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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