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दान : अमृतमयी परंपरा
"माता, पिता, मित्र, पत्नी आदि कुटुम्ब परिवार का सुख तथा धन, धान्य, वस्त्र-अलंकार, हाथी, रथ, मकान आदि से सम्बन्धित संसार का श्रेष्ठ सुख सुपात्र दान का फल है । ""
पद्मनन्दिपंचविंशतिका में इसी बात का स्पष्टतः समर्थन किया गया है
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"सौभाग्य, शूरवीरता, सुख, रूप, विवेक, बुद्धि आदि तथा विद्या, शरीर, धन, गृह, सुकुल में जन्म होना, यह सब निश्चय से पात्र दान के द्वारा ही प्राप्त होता है । फिर हे भव्यजनो ! इस पात्रदान के विषय में प्रयत्न क्यों नहीं
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दान के दिव्य प्रभाव से ही शालिभद्र ने दिव्य ऋद्धि एवं विपुल सम्पत्ति प्राप्त की । शालिभद्र का पूर्व - - जन्म का जीवन अत्यन्त दरिद्रता में बीता । बचपन में ही पिता चल बसे। जो कुछ जमीन या अन्य साधन था, सब बाढ़ आदि के प्रकोप में समाप्त हो गया । माता धन्ना ग्वालिन बालक संगम को लेकर
होने लगा । धन्ना आटा पीसना आदि
राजगृह चली आई | संगम का पालन-पोषण राजगृह में आसपास में धनिकों के घर के काम, सफाई, चौका बर्तन, कार्य करके अपना और बेटे का निर्वाह कर लेती थी ।
उस समय मजदूरी अधिक नहीं मिलती थी। मजदूरी बहुत ही कम थी । इसलिए मुश्किल से माँ-बेटे का गुजारा चल पाता था ।
एक दिन कोई त्यौहार था । आसपास के धनिकों के हमजोली लड़कों
के साथ संगम प्रतिदिन की तरह खेलने गया । धनिकपुत्रों ने संगम से कहा
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'आज तो हमारे यहाँ खीर बनेगी। बहुत स्वादिष्ट लगेगी ।
१. मादु - पिदु - मितं कलत्त- धण- घण्ण-वत्थु-वाहण-विसयं । संसारसारसोक्खं जाणउ सुपत्तदाणफलं ॥२०॥ सुकुल-सुरूव-सुलक्खण - सुमइ - सुसिक्खा - सुसील - सुगुणचारित्तं । सुहले सुहणामं सुहसादं सुतदाणफलं ॥२१॥
रयणसार
२. सौभाग्य - शौर्य - सुख - रूप-विवेकिताद्या,
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विद्या - वपुर्धनगृहाणि कुले च जन्म । सम्पद्यतेऽखिलमिदं किल पात्रदानात्, तस्मात् किमत्र सततं क्रियते न यत्नः ॥४४॥ प.पं.