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दान : अमृतमयी परंपरा
"पधारो मुनिराज ! हमारे डेरे पर ।"
मुनिवर बोले - " भाई ! मुझे अमुक नगर में जाना था, परन्तु मैं रास्ता भूल गया हूँ। रास्ता ढूँढते-ढूंढते समय भी काफी हो चुका है, मगर अभी तक उसका पता नहीं लगा है ।"
" पर गुरुदेव । भिक्षा लिये बिना आपको कैसे जाने दूँ । आप थके हुए भी हैं, भूखे भी हैं, इसलिए आप हमारे डेरे पर पधारें। आपके योग्य सात्त्विक आहार- पानी तैयार है । आप उसे स्वीकारें और सेवन करें ।" नयसार की हार्दिक भक्ति और धर्म स्नेहपूर्वक आग्रह देखकर मुनिवर उसके डेरे पर पधारे । नयसार ने मुनिवर को पवित्र एवं उत्कट भावों से आहार- पानी दिया । मुनिराज ने आहार किया, कुछ देर विश्राम किया और पुनः विहार करने को तैयार हुए । नयसार उन्हें दूर-दूर तक रास्ता बताने को साथ में गया । मुनिराज ने भी एक वृक्ष के नीचे कुछ देर विश्राम लेकर नयसार को श्रेयमार्ग का संक्षिप्त उपदेश दिया । तृषित चातक की तरह उसने उपदेशामृत का पान किया । इस उपदेश से वस्तुतत्त्व का बोध हो गया और भावी जीवन सुन्दर और उन्नत बनाने के लिए सम्यक्त्व का बीजारोपण हो गया ।
इस प्रकार दान के प्रबल निमित्त से भगवान महावीर को नयसार के जन्म में सर्वप्रथम सम्यक्त्व की उपलब्धि हुई ।
भगवान ऋषभदेव को भी धन्ना श्रेष्ठी के भव में दान से सम्यक्त्व की उपलब्धि हुई ।
इसी प्रकार कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्राचार्य और भी अधिक स्पष्ट रूप से कहते हैं -
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“उस समय धन्ना सार्थवाह (ऋषभदेव के पूर्व-भव के जीव) ने साधु-सन्तों को दान देने के प्रभाव से मोक्षतरु के बीजरूप सुदुर्लभ बोधि बीज (सम्यक्त्व) प्राप्त किया था ।२
१. धण सत्थवाह पोसण, जइगमण, अडविवास ठाणं च । बहु बोलीणेवासे, चिन्ता धयदाणमासि तया । आवश्यकनिर्युक्ति (गा. १६८)
२. तदानी सार्थवाहेन दानस्यास्य प्रभावतः ।
लेभे मोक्षतरोर्बीजं बोधिबीजं सुदुर्लभम् ॥
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• त्रिशष्टि. १/१/१४३