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________________ ९० दान : अमृतमयी परंपरा कई बार शासक अपनी प्रजा को किसी संकट से पीड़ित देखकर दयार्द्र होकर अपनी सम्पत्ति का सहायता के रूप में या अन्न के रूप में दान देता था। भागवत पुराण में राजा रतिदेव की कथा आती है कि उन्होंने यह प्रण कर लिया था कि जब तक एक भी व्यक्ति मेरे राज्य में भूख से पीड़ित होगा, तब तक मैं स्वयं आहार नहीं लगा। कहते हैं ४९ दिन तक वे निराहार रहे। अपने अन्न के भण्डार भूखी जनता के लिए उन्होंने खुलवा दिये जिससे शीघ्र ही दुष्काल मिट गया । महाराजा रतिदेव का दान एक महान् चमत्कार बन गया। हिरात का शेख अब्दुला अन्सार अपने शिष्यों से कहा करता था - "शिष्यों ! आकाश में उड़ना कोई चमत्कार नहीं हैं, क्योंकि गंदी से गंदी मक्खिया भी आकाश में उड सकती हैं। पल या नौका के बिना नदियों को पार कर लेना भी कोई चमत्कार नहीं क्योंकि एक साधारण कुत्ता भी ऐसा कर सकता है, किन्तु दुःखी हृदयों को दान देकर सहायता करना एक ऐसा चमत्कार है, जिसे पवित्रात्मा ही कर सकते हैं।" दान प्रीतिवर्धक है, यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है । वास्तव में शास्त्र की यह उक्ति अक्षरशः सत्य है - "अहवा वि समासेण साधूण पीतिकारओ पुरिसो । इह य परत्थाय पावति, पीदीओ पीवतराओ।"१ सारी बात का निचोड़ यह है कि दान से मनुष्य साधुओं का भी प्रीतिपात्र बन जाता हैं। जिसके फलस्वरूप वह दानी व्यक्ति इस लोक में भी जनता का प्रेम सम्पादन कर लेता है और परलोक में भी अतिशय प्रीतिभाजन बनता है। साथ ही दान से सर्वत्र मित्र बन जाते हैं, यहाँ तक कि विरोधी शत्रु भी मित्र बन जाता है, दान के प्रभाव से वह मैत्री परलोक में भी जाती है, वहाँ भी सभी उसके मित्र, सुहृदय और अनुकूल बन जाते हैं । इसलिए तथागत बुद्ध ने कहा है - १. निशीथचूर्णि
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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