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दान : अमृतमयी परंपरा विश्वास दिलाया कि अब मैं पूरे जी-जान से मेवाड़ की स्वतन्त्रता के लिए लडूंगा।
यह था दानवीर भामाशाह के दान का अद्भुत प्रभाव !
दान से शत्रु भी मित्र बन जाता है । महापुरुषों द्वारा यह अनुभवसिद्ध बात है कि जब भी कोई व्यक्ति उदार बन जाता है, अपने शत्रु को शत्रु नहीं मानता, घर आने पर उसका दान-सम्मान से स्वागत करता है, उसके साथ मैत्री भाव या बन्धुभाव रखता है तो वह दान-चाहे थोडी ही मात्रा में हो, शत्रु का हृदय बदल देता है, उसका शत्रुभाव मित्रभाव में परिणत हो जाता है । पद्मपुराण इस . तथ्य का साक्षी है। वहाँ स्पष्ट बताया गया है - . ___ "शत्रावपि गृहाऽऽयाते नास्त्यदेयं तु किञ्चन ।"
- अगर शत्रु भी घर पर आ जाये तो उसे भी कुछ न कुछ दो, अर्पण करो, दान-सम्मान से उसका स्वागत करो। किसी भी वस्तु के लिए उसे इन्कार मत करो, क्योंकि शत्र के लिए भी कोई वस्तु अदेय नहीं है। देने से मधुरता बढ़ती है।
___ इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद पैगम्बर जिन दिनों मक्का में इस्लाम धर्म का प्रचार कर रहे थे। उन दिनों धर्म और रूढ़ियों के नाम पर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को जिन्दा जला देता था। अरबस्तान में ऐसे व्यक्ति के लिए जिन्दा रहना बहुत बड़ी समस्या थी, फिर धर्म का प्रचार करना तो और भी दुष्कर कार्य था । परन्तु हजरत मुहम्मद बड़े कष्टसहिष्णु और उदार थे। उन्हें लोगों को खुदा का पैगाम सुनाना था। इसलिए वे सभी विपत्तियों का धैर्य से सामना करने के लिए तैयार रहते थे। चाहे वे सहनशील थे, किसी व्यक्ति को पीड़ा नहीं पहुंचाते थे, फिर भी पुरानी परम्परा के बहुत-से लोग उनका विरोध करते थे।
एक बार विरोधी ने प्रण किया कि "मैं जब तक मुहम्मद का सिर नहीं काट लूँगा, तब तक खाना नहीं खाऊँगा और इस तलवार को भी तब तक म्यान में नहीं डालूँगा।" वह व्यक्ति दोपहर में ही रेगिस्तान पार करता हुआ मक्का आ धमका । उसने एक मकान के पास किसी को बैठा देखकर पूछा - "क्यों भाई !