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दान की परिभाषा और लक्षण
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दान के लक्षण
अहंत्व, स्वत्व और स्वामित्व के विसर्जन की भावना ही दान की सफलता है।
जो वस्तु दी जाय, उस पर से स्वामित्व, ममत्व या स्वत्व (अपनापन) हटा लेना, उसका त्याग कर देना, 'इदं न मम' – यह मेरा नहीं है, इस संकल्प के साथ दूसरे को अपनी मानी हुई वस्तु सौंप देना, अर्थात् वस्तु पर अपना स्वामित्व छोड़कर दूसरे का स्वामित्व स्थापित कर देना है।
पाश्चात्य विद्वान जे. आर. मिलर ने अपने भावोद्गार निम्न शब्दों में प्रस्तुत किये हैं।
It is not having that makes men great. A man may have the largest abundance of God's gifts- of money, of mental acquirements, of power, of heartppossessions and qualities - yet if he only holds and hoards what he has for himself, he is not great.
Men are great only in the measure in which they use what they have to bless others. We are God's stewards, and the gifts that come to us are his, not ours, and are to be used for him as he would use them.'
जो अपने पास है उससे इंसान महान् नहीं बनता । इंसान के पास भगवान के दिये हुए उपहार हो – धन-संपत्ति, बुद्धि, शक्ति, दिल की मिल्कियत
और गुण - पर वह उसे अपने लिए पकड़कर व संग्रह कर रखता है, तो वह महान नहीं है।
इंसान उसी प्रमाण में महान है जब वह अपने पास जो है उसे दूसरे के लिए उपयोग करे । हम भगवान के प्रबन्धक हैं और जो उपहार हमें मिलते हैं वह उसके हैं, हमारे नहीं, और उसे ऐसे इस्तेमाल करना है जैसे वो उसे इस्तेमाल करेगा।
इसीलिए दान का मुख्य अंग स्वत्व और स्वामीत्व का विसर्जन है। दान का कार्य किसी वस्तु को एक हाथ से दूसरे हाथ में सौंपे बिना हो नहीं सकता, परन्तु जब तक उस छोड़ने के साथ ममत्व या स्वामित्व के त्याग के