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दान : अमृतमयी परंपरा
__प्राचीन आचार्यों ने यथासंविभाग का पूर्वोक्त अर्थ करके श्रावक के बारहवें व्रत को केवल साधु-साध्वियों को दान देने में ही सीमित कर दिया है। संविभाग का यह प्राचीन अर्थ आत्म-शुद्धि की दृष्टि से तो परिपूर्ण है, किन्तु जहाँ सामाजिकता का या मानवता का प्रश्न आता है वहाँ इस पर कुछ व्यापक चिन्तन करना आवश्यक है । यह ठीक है कि सद्गृहस्थ अपने शुद्ध निर्दोष आहार आदि में से संयति श्रमण आदि को प्रतिलाभित कर आत्म-कल्याण के पथ पर आगे बढ़े, किन्तु गृहस्थ को सदा सर्वत्र संयति अणगारों का योग मिलता कहाँ है। मुनिजनों का विहार क्षेत्र बहुत सीमित है, बहुत कम अवसर ही जीवन में ऐसे मिलते हैं जब उनको शुद्ध एषणीय आहार आदि देकर धर्मलाभ लिया जाय, ऐसी स्थिति में तो दान धर्म का क्षेत्र बहुत ही सीमित हो जायेगा, जबकि यह तो प्रतिदिन प्रत्येक स्थान पर किया जाना चाहिए । इसलिए अतिथिसंविभाग को व्यापक अर्थ में लेवें तो यह स्पष्ट होगा कि उसका मूल उद्देश्य तो गृहस्थ को उदार और लोभ एवं आसक्ति से रहित बनाना था, ताकि वह प्रतिदिन इस व्रत के माध्यम से उदारता का अभ्यास कर सके।
दान के जितने भी लक्षण, परिभाषाएँ और व्याख्याएँ हैं, वे सब एकदूसरे के साथ परस्पर संलग्न है। इसीलिए कई आचार्यों ने बाद में दान का परिष्कृत अर्थ भी दे दिया है।
इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि दान मानव-जीवन का अनिवार्य धर्म है, इसे छोड़कर जीवन की कोई भी साधना सफल एवं परिपूर्ण नहीं हो सकती, दान के बिना मानव-जीवन नीरस, मनहूस और स्वार्थी है, जबकि दान से मानव-जीवन में सरसता, सजीवता और नन्दनवन की सुषमा आ जाती है।
१. उपासकदशांग, श्रु. १, अ. १