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________________ ६८ दान : अमृतमयी परंपरा में रुपये टिकेंगे नहीं । अतः उन्होंने पूछा "अभी आप इन रुपयों का क्या करेंगे ? मेरे पास रहने दो ।" निराला – ‘“इस समय मुझे इन रुपयों की अत्यन्त आवश्यकता है । मुझे एक व्यक्ति को ये रुपये देने हैं ।" महादेवी – “किसे देने हैं ?" - " मेरे एकमात्र स्नेही मित्र की विधवा पत्नी को ।" निराला जी ने सजल नेत्रों से जवाब दिया । " मेरा मित्र मरणासन्न था । उसकी आत्मा इस चिन्ता से पीड़ित थी कि मेरे मरने के बाद मेरे स्त्री- बच्चों का क्या होगा ? उसके हृदय की व्यथा देखकर मैंने उसे आश्वासन दिया 'परिवार की चिन्ता मत करो। मैं तुम्हारे बच्चों को पढ़ाऊँगा, उनके भरण-पोषण का प्रबन्ध करूँगा ।' यह सुनते ही उसकी मृत्यु हो गई । अतः यह धन मुझे उस पीड़ित मृत आत्मा के परिवार को देना है। कुदरत ने मेरे वचन पूर्ण करने के लिए यह धन भेजा है।" महादेवीजी ने वे १,२०० रुपये निराला जी को सौंप दिये । वे रुपये लेकर मानो वह पराई अमानत हो, इस प्रकार ले जाकर तत्क्षण उन्होंने उस मृत मित्र की विधवा पत्नी को दे दिये । वह तो निराला जी की उदारता देखकर हर्ष-विभोर हो गई । निःसन्देह निराला जी के द्वारा समय-समय पर दिये गए ये दान पात्र को दिये गए दान ही कहे जा सकते हैं । इसी तरह देशबन्धु चित्तरंजनदास भी इतने उदार थे कि उनके पास जो भी गया, खाली हाथ नहीं लौटा। एक समय की बात है । एक छात्र, जो बहुत ही गरीब था, उनके पास कुछ सहायता माँगने के लिए आया । उनकी आर्थिक हालत उस समय तंग थी । अत: उनके सेक्रेटरी ने उस छात्र को वापस लौटा देना चाहा। संयोगवश देशबन्धुजी वहीं थे। उन्होंने जब सेक्रेटरी की बात सुनी तो वे वहीं से चिल्ला उठे - "छात्र को खाली हाथ लौटाने की अपेक्षा मेरा फर्नीचर नीलाम कर दो। मैं किसी भी दान के अवसर को खाली नहीं जाने दे सकता । यह योग्य पात्र है । इस छात्र ने दान का अवसर देकर मुझ पर उपकार किया है।" सेक्रेटरी ने चुपचाप कुछ रुपये छात्र के हाथों पर रख दिये । यह है, योग्य पात्र में दान का अवसर न चूकने का मन्त्र ! १. अभिधान राजेन्द्रकोष, पृ. २४-९१
SR No.002432
Book TitleDan Amrutmayi Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherParshwa International Shaikshanik aur Shodhnishth Pratishthan
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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