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________________ ५०४) श्री श्वेतांबर जैन तीर्थ दर्शन : भाग -२ ढाल पर दोनों तरफ एक-एक ऐसी दो गुफा है। वहाँ प्राचीन शिलालेख है। जो तीसरी-चौथी सदी के माने जाते हैं। पहले यहां चौमुख प्रतिमा थी। यह श्रेणिक का खजाना कहलाता है। पूर्व तरफ से दूसरी गुफा में प्रतिमाएं रखी हुई हैं यहाँ से २ कि.मी. जरासंध का अखाड़ा है। गुफा से आगे सोन मंदिर के अवशेष हैं। सोनमंदिर से आगे जाते पांचवें पर्वत वैभारगिरि का चढ़ाव शुरु होता है। ५६५ सीढ़ियां हैं। बायीं तरफ थोडी दूरी पर शालिभद्र का मंदिर है। यहां भगवान महावीर के ११ गणधर मोक्ष गए हैं। ऐसा कहा जाता है। मंदिर के एक तरफ भग्न मंदिर में अनेक प्राचीन कलात्मक प्रतिमाएँ हैं। मंदिर आठवीं सदी का माना जाता है। आगे जाते सप्तपणा गुफा आती है। जहाँ बौद्ध का प्रथम सम्मेलन हुआ था। ढलान पर पत्थर का मकान है जो जरासंध की बैठक मानी जाती है। नीते उतरते गरम पानी का कुंड आता है। जो ब्रह्मकुंड माना जाता है। यहां से धर्मशाला ३ कि. मी. है। तलहटी में राजगिर में मंदिर है। पहाड पर की प्रतिमाएं यहाँ विराजमान करने में आई है। मणियार मठ को निर्माल्य कूप कहते हैं। जहाँ शालिभद्र की ९९ पेटी का उपयोग कर फेंक देते। श्रेणिक का बंदीगृह मणियार मठ से १ कि.मी. है। वहाँ कोणिक ने पिता श्रेणिक को कैद रखा था। रेल्वे स्टेशन राजगिर तलहटी की धर्मशालाओं से २ कि.मी. है। बस स्टेशन २०० मी. है। गांव में टेक्सी, रिक्शा आदि मिलते हैं। धर्मशाला, भोजनशाला है, पहाड पर और रास्ते में पानी की व्यवस्था नहीं है। पांच पर्वतों की यात्रा २ दिन में करना सरल है। पहाडों की यात्रा जल्दी सुबह से करनी पड़ती है। ____ मु. राजगिर पिन-८०३११६ (जि. नालंदा) बिहार, तार टेनं. २० राजगिर नवीं सदी में कनीज के राजा के सामने चढ़ाई की थी। परन्तु विजय नहीं मिली। उनके पौत्र भोजराजा ने नगरी जीती फिर इस नगरी का पतन हुआ था। श्री जिनप्रभ सू. म. ने १३६४ में विधि तीर्थ कल्पमें इसका निवेदन किया है। विपुलगिरि उपर मंडन के पुत्र देवराज और वच्छराज ने श्री पार्श्वनाथ प्रभु का मंदिर बनवाया ऐसा उल्लेख सं. १४१२ की प्रशस्ति लेख में है। १५०४ में श्री शुभशील गणि ने अनेक बिंबों की प्रतिष्ठा कराई ऐसा उल्लेख है। सं. १५२४ में श्रीमाल वंश के जीतमलजी द्वारा वैभारगिरि उपर धन्ना शालिभद्र की प्रतिमाएं तथा ११ गणधर के चरण प्रतिष्ठित किए हैं । १६५७ में श्री जयकीर्ति सू. सं. १७४६ में श्री शीलविजयजी और उन्नीसवीं सदी में श्री अमृत धर्मगणी आदि द्वारा रचित तीर्थमाला में इस तीर्थ की महत्ता है। आज भी हर वर्ष बहुत यात्रा संघ यहाँ आते हैं। तलहटी धर्मशाला से चलकर जाते हुए गरम पानी के कुंड आते हैं। वहाँ से थोड़ी दर विपुलगिरि की चढ़ाई है। ढाई कि.मी. आगे जाते विपुलगिरि टुंक है। यहाँ एक मंदिर है। दूसरे का कार्य चलता है। यहां से डेढ़ कि.मी. उतरकर फिर डेढ कि.मी. चढ़ने पर रत्नगिरि आती है। रस्ता अच्छा नहीं है उसके सामने गृघ्रकुट पर्वत है। वहां श्री बुद्ध का विशाल मंदिर है। रत्नगिरि से २ कि.मी. दूर गया-पटना रोड़ मिलता है। फिर १ कि.मी. जाते तीसरे उदयगिरि का चढ़ाव शुरु होता है। वह कठिन है। वह डेढ़ कि.मी. सीढ़ियां बनी हुई है। फिर उतरते जलपान गृह बना हुआ है। बायीं तरफ फल्गु नदी है। यहां से धर्मशाला डेढ़ कि.मी. जितनी ' है। धर्मशाला से चौथी स्वर्णगिरि तलहटीलगभग ५ कि.मी. दुर है। चढ़ाई ३ कि.मी. है। सीढ़ियां है। पर्वत के दक्षिण अरनाथकुं सदा मेरी वंदना, जगनाथकुं सदा मेरी वंदना। जग उपकारी धन जयौ वरसे, वाणी शीतलचंदना रे। जग. रुपे रंभा राणी श्रीदेवी, भूप सुदर्शन नंदना रे । जग. भाव भगतिशुं अहनिशि सेवे, दूरित हरे भव फंदना रे। जग. छ खंड साधी द्वेधा कीधी, दुर्जय शत्रु निकंदना रे । जग. न्यायसागर प्रभु सेवा मेवा, माने परमानंदना रे । जग.
SR No.002431
Book TitleShwetambar Jain Tirth Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size75 MB
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