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________________ आंध्र प्रदेश फिरोजीनंग में बनी हुई कुंभक सिंहासन अर्द्धपद्मासन अद्वितीय प्रतिमा है। बायेंतरफकेगर्भगृह में कृष्णवर्णग्रेनाइट पत्थर की ४२४ ४२ ईंच की श्री नेमिनाथजी की प्रतिमा सर्प के आधार पर है। उसके बाद शांतिनाथजी५२ ईंच, ऋषभदेव ३९ ईंच, अभिनंदन स्वामी ४५ ईंच, ऋषभदेवजी ४९ ईंच, चंद्रप्रभस्वामी ४६ इंच यह भव्य प्रतिमा भी श्याम ग्रेनाईट पाषाण में बनाई हुई है। चौबीसीचोकलेट पत्थर में है। बाहर पद्मावती की श्याम प्रतिमा है। आरस के १२ और धातु के १२ प्रतिमाजी है। दादावाड़ी में १९७० में प्रतिष्ठा हुई। सं.१३३३ के शिलालेख मेंमाणिक्य स्वामी की प्रतिमा लिखी है। सं.१४८१ के सेख में तपागच्छाधिराज भद्रारक श्रीरत्नसिंहसूरीजी की निश्रा में जीर्णोद्धार होने का उल्लेख है। सं. १६६५ के शिलालेख में यह विजय सेन सूरिजी म. का नाम खुदा हुआ है। सं. १७६७ में पं. केशर कुशलगणि की निश्रा में हैदराबाद श्रावकों द्वारा जीर्णोद्धार होने कालेख है । उस समय दिल्ली के बादशाह औरंगजेब के पुत्र बहादुरशाह केसुबेदार मोहम्मद युसुफखां के सहयोगसे कार्य हुआ था। बड़ा कोट भी बनवाया था। हर वर्ष चैत्र सुदी तेरस से पुनम तक मेला लगता है। १७८७ में बहादुर शाह के समय में जीर्णोद्धार कर किला बनवाया है। मंदिर को विशाल दक्षिण शैली का रुप देकर जीर्णोद्धार चलता है। अभी खोदकार्य करने पर प्राचीन अवशेष मिले हैं। आंध्र में मुख्य तीर्थ और भारत के भी मुख्य तीर्थों में से एकतीर्थ है। यहां विशाल हाल, धर्मशाला, भोजनशाला, अतिथिगृह, लब्धिसूरीश्वरजी आराधनाभवम है। हैदराबाद से ८५ कि.मी. आलेर स्टेशन से ५ कि.मी. है। स्टेशन के सामने धर्मशाला है। विजयवाडा हैदराबाद रेल्वे पर आलेर स्टेश' है। जैनतीर्थ कमेटी कुलपाकजी तीर्थ - कोलन पाठ-५०८१०१ ता. आलेर जि. नरगोंडा कुलपाकजी जैन मंदिरजी मूलनायक श्री माणिक्यदेव ऋषभदेवजी यह मंदिर बहुत प्राचीन है। दक्षिण शैली जैसा है। अष्टपदवाला विशिष्ट शिखर है जो सातवीं सदी पूर्व का है। यह मूर्ति श्रीभरत महाराजाने स्वयं की अंगुठी के नीलम में से बनवाई और श्रीपुंडरीकस्वामी गणधर भगवंत के द्वारा प्रतिष्ठा करवाई है। ऐसा कहा जाता है। ३९ ईंच के यह प्रतिमाजी श्रेष्ठ रत्न के हैं। यह प्रतिमा अयोध्या में स्थापित की थी। वहां से विद्याधर अष्टापद पर्वत उपर ले गये। वहां से इन्द्र नारदजी के वचन से मंदोदरी को इस प्रतिमा की पूजा करने की इच्छा होने पर रावण ने इन्द्र की आराधना कर यह प्रतिमा प्राप्त की और लंका में स्थापित की। लंका का नाश जानकर देव नेवह प्रतिमासमुद्र में पधराई और बाद में कन्नड देश के कल्याण नगर के राजा शंकर ने मिथ्यात्वी देवों के उपसर्ग से बचने के लिए पद्मावती के वचन से समुद्रदेव की आराधना कर मूर्ति प्राप्त की और कुलपाक नगर में वि. सं. ६८० में प्रतिष्ठा की। मूलनायक की दाहिनी भुजा में ४१ ईंच के कृष्णवर्णी ग्रेनाइट के श्री ऋषभदेव तथा बायीं तरफ आरस के दो काउस्सग की प्रतिष्ठा की है। चौबीसी में १४ प्रतिमाजी है भगवान की दाहिनी तरफ गर्भगृह में श्री महावीर स्वामी की
SR No.002431
Book TitleShwetambar Jain Tirth Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size75 MB
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