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मूलनायक श्री संभवनाथजी
इतिहास की आंखों में कराड शहर
कृष्णा और कोयना नदी के किनारे इंस्वीसन पूर्व बसा हुआ कराड शहर का ऐतिहासिक रूप से नाम करहाटकनगर है। वह अनोखी हरियाली से शोभित, सुहावना, समृद्धिशाली नगर है ।
इस शहर की धार्मिक वृत्ति के कारण यहां अनेक धर्मीयसंत-महंतों का आगमन और विचरण होता रहता था। एक समय यहां बौद्ध धर्म का प्रचार हुआ बौद्ध धर्मावलम्बी बहुत थे । आगासीया पहाडी पर बौद्धों की गुफाएं भी अभी विद्यमान है।
मैसूर के पास दिगंबरों के सुप्रसिद्ध तीर्थ के रूप में पहचाना जाने वाला श्रवणबेलगोला में एक स्तंभ पर आज एक शिलालेख में मौजूद है। उसमें लिखा हुआ है कि दिगम्बरीय समंतभद्र जैनाचार्य वाद करने के लिए आये। संस्कृत भाषा के इस शिलालेख में "प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुं मटं" ऐसा उल्लेख है। यह पढ़ते उस समय यह नगरी विद्वानों से और अनेक शूरवीरों से शोभित होती थी।
श्री श्वेतांबर जैनों की बस्ती भी यहां थी और उन्होंने सर्व प्रथम आज धर्मशाला के रूप में जानी जाने वाली जगह पर श्री चिंतामणि पार्श्वनाथजी का घर मंदिर निर्माण होने का उल्लेख प्राचीन एक स्तवन में मिलता है। उस समय यहां मात्र ८ ही घर थे। शा. मोतीचंद जयचंद, शा. राजाराम मगनचंद, शा. हाथीभाई मलुकचंद, शा. घेलाभाई मलुकचंद, मलुकचंद गुलाबचंद, शरवचंद मोतीचंद, शा. जीवाभाई बापुभाई तथा शा. कस्तुरजी यह घर थे ।
इन आठों घरों की धर्मभावना श्रेष्ठ होने से उनको शिखरबंधी मंदिर बनवाने की भावना हुई मूल आगलोड निवासी सेठ श्री हाथीभाई मलुकचंद ने नूतन शिखरबंधी जिननिर्माण में रु. २५ हजार का दान घोषित किया और उस समय कराड में विराजमान यति केसरीचंद महाराज के पास खननमुहुर्त निकलवा कर कार्य का प्रारंभ किया । धर्मशाला और मंदिर की जगह बिना मूल्य के सेठ श्री परमचंदभाई ने संघ को प्रदान की। मंदिर के कार्य की पूर्णाहुति हो उसके पहले ही श्रीमान् हाथीभाई का देहावसान हो गया। मंदिर का कार्य रुक गया। दो-तीन वर्ष उनकी धर्मपत्नी जीवीबेन ने उस समय के अग्रणी शा. मोतीचंद जयचंद की देखरेख में मंदिर का कार्य पूर्ण करवाया। और स्वयं की राशि को अनुकूल श्री संभवनाथ भगवान की प्रतिमा लाने का कार्य
श्री श्वेतांबर जैन तीर्थ दर्शन भाग २
मोतीभाई को सोंपा । श्री मोतीभाई अहमदाबाद गए। रु. ३०० एडवांस देकर वि. सं. १६८२ के साल में सेठ श्री शांतिलाल जवेरी द्वारा बनवाई श्री संभवनाथ भगवान की प्रतिमा रतनपोल मंदिर में से लाकर वि. सं. १९६२ फाल्गुन सुदी १ को भव्य प्रवेश कराया।
वि. सं. १९६२ वैशाख सुदी ६ सोमवार के शुभमुहुर्त में सुबह ९-१५ बजे श्री संभवनाथ भगवान की धूमधाम से बालकुमार हीराचंद के शुभ हाथों द्वारा प्रतिष्ठा हुई ।
इस प्रतिष्ठा के समय अनेक विघ्नों का सामना करना पड़ा । जैनेतरों ने " इस नागदेव को हम यहां नहीं बैठने देंगे। " ऐसी प्रतिज्ञा कर जैनों के साथ संपूर्ण व्यवहार बंद किया। नदी से पानी लाने के लिए भी मजदूर नहीं मिलते ऐसी विषम परिस्थिति में पुलिस की सुरक्षा के साथ पुलिसबैन्ड बुलाकर धूमधाम से प्रतिष्ठा कराई थी।
प्रतिष्ठा शुभमुहुर्त में होने से प्रतिष्ठा के बाद जैन समाज में घर बढ़ने लगे ८ घर से बढ़ते-बढ़ते गुजराती कच्छीराजस्थानीयों की बस्ती भी धंधे के लिए आने लगी। वह यहां आने के बाद व्यापार धंधे में भी सुखी और समृद्ध बने । साथ ही धर्म में भी भावनाशील बने । आज लगभग ३५० घर जैनियों के हैं।
कराड की आज की दिखती कायापलट में मुख्य हिस्सा जिस किसी पुरुष का है तो वे हैं व्याख्यान वाचस्पति पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचंद्रसूरीश्वरजी महाराज जिन्होंने इस दक्षिणप्रदेश में सर्व प्रथम कदम रखे। कराड से कुंभोजगिरि तीर्थ का सर्वप्रथम संघ निकाला। वि. सं. १९९४ में कराड में चातुमांस कर साधु-साध्वियों के लिए यह विहार मार्ग खोल दिया। विहार मार्ग सुलभ बनाया । उसके बाद आचार्यदेव श्रीमद्विजय लब्धि सूरीश्वरजी महाराज आदि अनेक महापुरुषों ने यहां चातुर्मास करके इस भूमि को पावन किया उसके बाद वि. सं. २०२१ के साल में श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ आदि जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा (पू. मु. श्री रंजनविजयजी म. सा.) पू. आचार्यदेव श्री मद् विजयरत्नशेखरसूरीश्वरजी महाराज की शुभ निश्रा में हुआ ।