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________________ श्री श्वेतांबर जैन तीर्थ दर्शन : भाग - FDDI FRREE और प्रतिमाजी ने उसमें स्वयं प्रवेश किया और भूमि से प्रतिमाजी पर जाले लग गए हैं देखकर दुःख होता है। सात अंगुल उंचे रहे। वि.सं. ११४२ माह सुद५ रविवार को पूजा नहीं हो सकती। अभयदेव सू.म. के द्वारा प्रतिष्ठा हुई। बार्थी तरफ शासनदेव जैन परंपरा के इतिहास में ऐसा उल्लेख है कि पास के की प्रतिष्ठा करके राजा ने भी आंगी मुकुट आदि पूर्वक गांव में दिगंवर मंदिर में चोरी हुई और उनकी प्रतिमाजी की बहत भक्ति की। आचार्य महाराज वहां चातुर्मास करके रक्षा के लिए अंतरिक्ष मंदिर में विराजमान की और दिगंबरों विहार कर गए। का आना-जाना होने लगा और फिर मंदिर तथा मूर्ति पर AHE OF श्री देवसूरि म. के शिष्य साचोरके निवासी श्री भाववि. अधिकार जमाने के लिए दिगंबरों द्वारा विवाद शुरु हुए हैं। म. की आंखे चली गई। पद्मावती देवी ने कहा कि तुम इस तीर्थ के कार्य में प. पू. आ. श्री विजयभुवन अंतरिक्ष पार्श्वनाथजी का आश्रय लो वह पाटण से यहां तिलकसूरीश्वरजी म. ने जागृति लाई है। उसी प्रकार प. पू. आए अन्नजल का त्याग किया स्तुति करके नेत्रपटल खिसक आ. श्री विजय यशोदेव सू. म. ने भी जागृती लाने में बहुत EOHRE गए दर्शन किए। प्रयत्न किए हैं। उसी प्रकार महाराष्ट्र तथा मुबंई के श्रावकों उनको देव ने स्वप्न में कहा कि मंदिर छोटा है। बड़ा ने भी बहुत प्रयत्न किए हैं। कराओ। श्री भाववि.म.ने संघ को उपदेश देकर बड़ा मंदिर मूल अंतरिक्ष मंदिर श्रीपालराजा ने बंधवाया वह शिरपर BHOI कराया और सं. १७१५ में फाल्गुन वदी ६ रविवार को नये गांव के पास बगीचा है वहां वड़ का पेड़ है वहां प्रभुजी घड़ा मंदिर में पूर्वाभिमुख प्रतिष्ठा की प्रभुने भूमि का स्पर्श नहीं जा सके इतने अधर थे ऐसा कहा जाता है। अंतरिक्ष पार्श्वनाथ किया एक अंगुल उंचे रहे आज भी नीचे से कपड़ा निकल मर्ति मनिसुव्रत स्वामी के शासन में बनी है। वह बाहर लाकरें जाता है। सं. १७१५ में श्री देव सू. म. के द्वारा औरंगाबाद प्रतिष्ठा ११४२ में हुई है। २०१५ अभिषेक उत्सव के समय के अमीचंदभार्या इंद्राणी दोनो ने धातु की वासुपूज्य स्वामी नया मंदिर बनवाने की योजना हुई और २०२०२ में उन श्री की प्रतिष्ठा कराई है। मूल मंदिर में अधिष्ठायक देव सं.. विघ्नहर पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिष्ठा हुई है। ११४२ में विराजित है वह मणिभद्रजी के नाम से जाने जाते महाराष्ट्र और देशभर के बड़े तीर्थों में यह तीर्थ गिना | हैं। और पश्चिमाभिमुख प्रभु की बैठक थी उसके उपर। जाता है। धर्मशाला, भोजनशालाकी व्यवस्था है। सुरत अधिष्ठायक देव माणिभद्र की स्थापना हुई है वो भगवान भुसावल रेल्वे तथा कलकत्ता नागपुर रेल्वे है। वाशिम स्टेशन | फिरे उसके बाद हुई होगी? भाव वि. म. ने उनके गुरु १९ कि.मी. है। आकोला से ७२ कि.मी. है। शिरपुर पिन - | विजयदेव सू. की पादुका की सं. १७१५में प्रतिष्ठा की है। ४४४५०४ ता. वाशिम जि. आकोला। ___शिरपुर के मराठा पुजारी पोलकर नाम से जाने जाते हैं। वह मंदिर हड़प बैठे उसका श्वे. दि. संयुक्त मिलकर तीर्थ को पोलकरों के अधिकार में से निकाला। परस्पर संघर्ष न तारो तारोहे प्रभुजी प्यारा, शान्तिनाथ भगवान || हो इसलिए श्वेताम्बरों ने दिगंबरों को सं. १९६१ में पूजाके तारो तारो हे प्रभुजी प्यारा, शान्तिनाथ गुणवान नंबर का पत्रक देकर संतोष दिया। परंतु श्वेताम्बरों का भवसागरमा तुडता मजने, उतारो भवपार: अधिकार पचाने के लिए १९६३ में माह सुदी १२ के लेख में तुज वियोगे पवमा प्रमीयो, शांति जमली लगार । तारो. कंदोरा, कच्छ उन्होंने मूर्ति में से खोद निकाले। चक्षु, टीका आधिव्याधिने उपाधिमा, दाझ्यो अपरपार: करुणाष्टिले पहेर करीने; शांत करो आवार। तारो. | आभूषणों में विघ्न डाला। सन् १९०५ से केश हुए। इंग्लेण्ड विषय कषावने वश घाईने, गुना कयां अपार; प्रीवी काउन्सील का फरमान १९२९ में आया। सभी श्वे. जेवो तेवोदास जाणीने माफ करो दयाली तारो. की तरफ में आए। उसके सामने की दि. की अपील प्रीवी पुण्योदये तुम दर्शन पानी, तरियो आ संसार; काउन्सल ने निकाल दी। हवे प्रभु मुजने दूरन करशो, हृदय धरीने प्यार। तारो. सा ऐसा होते अभी मूर्ति सरकारी पहरे में कैद है। और गुरु कपरसूरि अमृत भाखे, विनतडी अवधारणा 1खिड़की में से दर्शन हो सकते हैं। भवोभव हुं हुं दास तुमारो नहि भुलु उपकार तारो 30 HESAR FORE
SR No.002431
Book TitleShwetambar Jain Tirth Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year2000
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size75 MB
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