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________________ श्री श्वेतांबर जैन तीर्थ दर्शन : भाग-१ तूडवाया फीर किला और मंदिर तोड़ा और सूवर्ण मूर्ति दिल्ही ले गया । एक जैसी भी लोकोक्ति है कि मूर्ति का अंगूठा तोडने के 2 बाद शासनदेव ने मूर्ति को कुँए में अद्दश्य कर दिया और जब सुवर्णका अंगूठा बनाकर जोडने के बाद मूर्ति प्रगट होगी पर वो शक्य न हुआ । यहाँ महावीर मंदिर की निकट में ओक बड़ी मस्जिद है । वही यह असली मंदिर होने का सब अनुमान लगाते है | यह मस्जिद के पथ्थर में सं. १३२२ वैशाख सुद १३ के दिन भंडारी छाड़ा शेठ द्वारा महावीर भगवान के मंदिर का जिर्णोद्धार हुआ था । ऐसा लेख है । श्री महेन्द्रसूरी म. कृत अष्टोत्तरी तीर्थ माला में कनोज के राजा ने १३ वीं सदी में कास्ठमय वीर जिनका मंदिर बनाने का उल्लेख है । वर्तमान में जिवित स्वामी महावीर मंदिर है । इसे कब बनाया था । यह बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता परंतु जहाँ आज श्री महावीर स्वामी है वह सं. १४७७ वैशाख वद १ के दिन अंचल गच्छ के श्री जयकीर्ति सू. म. ने अंजन किया था । ऐसा उल्लेख है । उसी प्रकार बड़े वासुपूज्य स्वामी मंदिर में मूल मूर्ति में सं. १४७६ वैशाख वद १ का लेख है । आदीश्वरजी की मूर्ति में है । सं. १४७६ वैशाख वद १ पिप्पल गच्छ के शांतिसूरि म. संतानीय उदयानंद सू. म. का लेख है । ब्रह्मशांतियक्ष में भी उसी साल तिथि और उदयानंदसूरि का नाम है । छोटे वासुपूज्य में भी १४७६ में वैशाख वद १ का दिन साचोर जैन देरासरजी लिखा हुआ है । अंचलगच्छ के यहाँ ५०० घर थे जो सिर्फ दो कुटुंब के है वे सब स्थानकवासी बन गये है और आज भी है उनके श्री. महावीर मूलनायक श्री महावीर स्वामी स्वामी की कायमी ध्वजा आदि के आदेश आज भी चलता है । यह तीर्थ भगवान महावीर के समय में भी था । इस लिये पूजा करने के कार्य से और स्थानिक मुनियों के प्रभाव से स्थानक "जग चिंतामणि" चैत्यवंदनमें श्री गौतम स्वामी भगवानने “जयउं में वे जाते है । ऐसा माना जाता है । वीर सच्चउरि मंडण" जैसी प्रार्थना की है। वह स्तोत्र में नगरी का हाल में पंचका मंदिर जो जिवित स्वामी का माना जाता है। नाम सत्यपुरी बताया है । वि. सं. १३० में नाहड़ राजाने गगनचुंबी पर इस का कोई उल्लेख नहीं है । हाल में सारे मंदिर की हालत मंदिर बनाकर सुवर्णकी वीर प्रभुजीकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा श्री खराब हो गई है । जिर्णोद्धार होने के बाद १९६३ वैशाख सुद ३ जज्जिगसूरीश्वरजी के वरद् हस्तोंसे कराई थी। यह उल्लेख विविध के दिन यति महाविजयजी के वरद् हस्तोंसे प्रतिष्ठा संपन्न हुई तीर्थकल्पमें श्री जिनप्रभसूरि म. ने १४ वीं सदी में लिखा है। है। अब भी जिर्णोद्धार करके २०३८ महा सुद १४ के दिन पू. कविवर धनपाल ने सत्यपुरीय मंडन महावीरोत्सव स्तोत्रं में वीर श्री शांतिचंद्र सू. म. के पट्टधर श्री कनकप्रभ सू. म. के वरद् प्रभुजी की प्रतिमा का बहुत महिमा गाया हैं । यह तीर्थ की महिमा हस्तोंसे प्रतिष्ठा हुई थी । तपगच्छका महावीर स्वामी जीर्ण और बढ जाने से इर्षा के कारण ११ वीं सदी में मालवा के राजा ने आशात होने से हालार देशोद्धारक श्री विजय अमृत सू. म. ने आक्रमण किया था । १३४८ में मोगल सेनाने १३५६ में ___इसका जिर्णोद्धार हो सके इस लिये उन्होंने १७ साल तक घी का अलाऊदिन के भाई अलेफखान ने भी आक्रमण किया था । पर त्याग किया था । इस मंदिर का जिर्णोद्धार करके इसकी प्रतिष्ठा वह सफल न हुआ । १३६१ में अलाऊद्दिन खिलजी खुद आया . २०१३ मृगशीर्ष सुद६ के दिन पं. श्री कंचन विजयजी (कनकप्रभ और जोशी को दबाकर जान लिया की जहाँ तक कीर्तिस्तंभ है तब सू.म.) के वरद् हस्तोंसे संपन्न करवाई थी। खरतर गच्छका श्री तक किला या मंदिर नहीं तूटेगा । यह जानकर कीर्तिस्तंभ को शांतिनाथजीका मंदिर १४७९ महा सुद ४ के दिन प्रतिष्ठा संपन्न 來來來來來來來來來來來來來來來來來來來來喚來來來來來來來來過 Y-GEEEEEEEEEEEEEEEEEEER
SR No.002430
Book TitleShwetambar Jain Tirth Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1999
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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