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श्री श्वेतांबर जैन तीर्थ दर्शन : भाग-१ समाला
शासन
श्री शंखेश्वरा पार्श्वनाथजी जैन मंदिर
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मूलनायक - श्री शंखेश्वरा पार्श्वनाथजी पेढी-शेठ जीवणदास गोडीदास वाया-वीरमगाँव
(१) श्री शंखेश्वरा महातीर्थ अत्यन्त प्राचीन ८७ हजार वर्षों का कहा जाता है। सुन्दर शिखरोंवाला भव्य जिनालय है। पुरे विश्व में प्रसिद्ध है। हजारों यात्रीगण आते हैं। अनेक धर्मशालाये हैं। विशाल भोजनालय चलता है।
आषाढ़ी श्रावक तीन प्रतिमा स्थापित करते है। वे चारुप संभात एवं शंखेश्वर में विराजमान है। उनका जैन ग्रन्थों में वर्णन है। वासुदेव-श्रीकृष्ण का प्रति वासुदेव-जरासंघ के साथ युद्ध हुआ-जिसमें जरासंघ ने यादवों की सेना ऊपर जरा छोड़ी उससे सेना मूर्छित हो गयी। शलाका पुरूष श्रीकृष्ण एवं नेमि कुमार ऊपर उसका असर नहीं हुआ। श्रीकृष्ण चिन्तित हो गया श्री नेमि कुमार ने कहा कि धरणेन्द्र के पास पार्श्वनाथ की प्रतिमा है। उसको अटम तप की आराधना करके स्थापित करना और उस प्रतिमा के न्हवण से जरा विद्या उपद्रव जायगा। श्री कृष्ण ने कहा में साधना करूँ तब जरासंघ आकर यादव सेना को काट दे - उसकी रक्षा कौन करे? नेमि कुमार ने कहा मैं करूंगा। श्री कृष्ण अट्ठम तप के साथ ध्यान में बैठ गया। नेमिकुमार अकेले रथ में शंख फूंकते सेना को इतनी शीघ्रता से प्रशिक्षण करता है जिससे सबको शंख फूंकते श्री नेमिकुमार का रथ दिखायी देता है - इससे नेमिकुमार को शंखेश्वर के रूप में सब कहते है।
श्री कृष्ण को धरणेन्द्र ने पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा प्रदान की, न्हवण करके सेना ऊपर जल छींटा। सेना जागृत हो गयी। श्री कृष्ण ने हर्ष में शंख बजाया और शंखेश्वर ग्राम बसाया - बहुत ऊँचा जिन मंदिर बनवाया और यह प्रतिमा स्थापित की - वह द्वारिका के राजमहल में से दर्शन करता था - ८७ हजार वर्ष पूर्व का यह प्रसंग है।
वर्तमान में सिद्धराज के मंत्री सज्जन शाह ने पू. आ. श्री देवचन्द्रसूरि जी म. की निश्रा में ११५५ में यह उद्धार कराया था। मंत्री वस्तुपाल तेजपाल ने पू. आ. श्री वर्धमान सूरिजी म. के मुँह से इस तीर्थ की महिमा जानकर आवश्यक उद्धार १२८६ में कराया और बावन जिनालयों के ऊपर सुवर्ण कलश चढ़ाये - १३०२ में झींझुवाडा के राजा दुर्जन शैल्य ने जीर्णोद्धार कराया। १४ वी सदी में अलाउद्दीन खिलजी के सैनिकों ने नुकसान किया उस समय श्री संघ में प्रतिमाजी को दूसरी जगह सुरक्षित रखी, १६५६ में बादशाह शाहजहाँ ने राजनगर के नगरसेठ श्री शान्तिदास के नाम शंखेश्वर का फरमान बनाकर दिया।
पू. आ. श्री सेनसूरिजी म. के उपदेश से गंधार मानाजी श्रावक ने १६२८ से १६७८ के मध्य जीर्णोद्धार कराया। १७६० में पुनः जीर्णोद्धार कर विजयप्रभ सूरिजी म. के पट्टघर विजयरत्न सूरिजी के हाथों प्रतिष्ठा करायी।
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