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________________ १५६) श्री श्वेतांबर जैन तीर्थ दर्शन : भाग-१ J-E- --- --- -- ----- ३. श्री भीलडीयाजी तीर्थ श्री भीलडीया जी तीर्थ जैन मंदिर मूलनायक जी - श्री भीलडीया पार्श्वनाथ जी ___ भीलडी स्टेशन और हाइवे के ऊपर गाँव है। यह पहले भीलपल्ली तब प्राचीन मंदिर में प्रतिमा भोयरे में थी। वि. सं. १९३६ में जीर्णोद्धार कहलाती थी। कपिल केवली के हस्ते इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई है ऐसा किया था। तीन गृभगृहों वाला नये भव्य मंदिर की २०२७ जेठ सुदी १० को कहा जाता है ।संप्रति राजा से भी प्रतिष्ठा करवाने की मान्यता है। यह नगरी पू. आ. श्री विजयभद्रसूरिजी म. के हस्ते प्रतिष्ठा हुई थी। जूना डीसा श्री बावही नाम से भी प्रसिद्ध थी।तब १२५ शिखरबन्द मंदिर थे।१२१८ में संघ इस तीर्थ की व्यवस्था सम्हालता है। और उसमें पू. आ. श्री Na श्री जिनचन्द्र सूरिजी को जिनपति सूरिजी ने यहाँ पर दीक्षा प्रदान की ॐकारसूरिजी महा. तथा पू. आ. श्री सुबोधसागर सूरिजी म. की प्रेरणा है। थी।१३१७ में ओसवाल श्रेष्ठी भुवनपाल शाह ने जीर्णोद्धार किया था। बावन जिनालय होने पर २०२७ में पू. आ. श्री विजयरामचन्द्रसूरि जी १३४४ में सेठ लखमशी द्वारा श्री अम्बिका देवी की प्रतिष्ठा का उल्लेख म. की निश्रा में भव्य अंजनशलाका प्रतिष्ठा महोत्सव के साथ ही बावन है। १४ वीं शताब्दी में श्री सोमप्रभ सूरीजी म. का चातुर्मास था। नगरी का जिनालयों की प्रतिष्ठा हुई । जिसमें भव्य लोद्रवा पार्श्वनाथ, सीमन्धर विनाश जानकर पहले का सु. १४ को चोमासी कर नगर छोड़कर राधनपुर स्वामी, सहस्रफणा पार्श्वनाथ की तीन महीधर मंदिर में प्रतिष्ठा हुई और सब गये थे। सोमप्रभ सूरीजी म.को तपा खरतर अंचल गच्छ के आचार्यो ने यहाँ पार्श्वनाथजी पधराये । इस भव्य तीर्थ की यात्रा करके धन्य बनना चाहिए। आचार्य पदवी प्रदान की थी। १३९३ में अलाउद्दीन ने आक्रमण कर नाश हर वर्ष मार्गशीर्ष (पोष) वदी १० को मेला भरता है। जूनाडीसा संघ ने करने का ज्ञात होता है। जली हुई ईटें वि. निकलती हैं। इस तीर्थ की बहुत ही अधिक प्रगति कराकर प्रसिद्धि करायी है और बहुत वि.सं.१८७२ मे धरमशीभाई कामदार की प्रेरणा से इस प्राचीन मंदिर के ही उत्तम भक्ति आराधना होती है। * पास भीलडिया गाँव फिर से बसा। धर्मशाला, भोजनशाला वि. की उत्तम व्यवस्था है। 到學影图影創督凰督凰影剧剧剧剧剧學創图慰 VIDI . V
SR No.002430
Book TitleShwetambar Jain Tirth Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1999
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size114 MB
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