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________________ विसुद्धिमग्गो एवं कालसतं कालसहस्सं कालसतसहस्सं पि वाचाय सज्झायो कातब्बो । वचसा सज्झायेन हि कम्मट्ठानतन्ति पगुणा होति, न इतो चितो च चित्तं विधावति । कोट्ठासा पाकटा होन्ति, हत्थसङ्खलिका' क्यि वतिपादपन्ति विय च खायन्ति । (१) यथा पन वचसा, तथेव मनसा पि सज्झायो कातब्बो । वचसा सज्झायो हि मनसा सज्झायस्स पच्चयो होति । मनसा सज्झायो लक्खणपटिवेधस्स पच्चयो होति । (२) वो ति । सादीनं वण्णो ववत्थपेतब्बो । (३) सण्ठानतो ति । ते येव सण्ठानं ववत्थपेतब्बं । (४) दिसतो ति । इमस्मि हि सरीरे नाभितो उद्धं उपरिमदिसा, अधो हेट्ठिमदिसा, तस्मा 'अयं कोट्ठासो इमिस्सा नाम दिसाया' ति दिसा ववत्थपेतब्बा । (५) ओकासतो ति । 'अयं कोट्ठासो इमस्मि नाम ओकासे पतिट्ठितो' ति एवं तस्स तस्स ओकासो ववत्थपेतब्बो । (६) परिच्छेदतो ति। सभागपरिच्छेदो, विसभागपरिच्छेदो ति द्वे पंरिच्छेदा। तत्थ अयं कोट्ठासो हेटा च उपरि च तिरियं च इमिना नाम परिच्छिन्नो ति एवं सभागपरिच्छेदो वेदि ७० 'मूत्र, लसिका, पोंटा, थूक, चर्बी, आँसू, मेद, पसीना, लहू, पीब, कफ, पित्त, मस्तिष्क, मल, उदरस्थ पदार्थ, आँतों का बन्धन, आँत, फुफ्फुस, प्लीहा, क्लोमक, यकृत, हृदय, वृक्क, अस्थिमज्जा, अस्थि, स्नायु, मांस, त्वचा, दाँत, नाखून, रोम, केश' कहना चाहिये। सौ बार, हजार बार, लाख बार भी बोल-बोल कर पाठ करना चाहिये। क्योंकि वचसा (बोलकर) पाठ करने से कर्मस्थान सुपरिचित होता है, चित्त भी इधर-उधर नहीं दौड़ता। (शरीर के) प्रत्येक भाग प्रकट होते हैं (मानस पटल पर उलटकर सामने आते हैं), हाथ की अङ्गुलियों की पंक्ति के समान और चहारदीवारी में लगे खम्भों की पंक्ति के समान प्रतीत होते हैं । (१) जैसे बोलकर, वैसे ही मनसा पि सज्झायो (मन में भी पाठ) करना चाहिये। बोलकर किया गया पाठ मन में किये जाने वाले पाठ का प्रत्यय ( हेतु) होता है (अर्थात् पहले बोलकर किया गया पाठ मानसिक पारायण के लिये आवश्यक है)। मन में किया गया पाठ (प्रतिकूल के) लक्षण प्रतिवेध (गहराई से समझना) का प्रत्यय होता है । (२) वण्णतो - केश आदि के वर्ण को निश्चित करना चाहिये । (३) सण्ठानतो उन केश आदि के ही आकार का निश्चय करना चाहिये। (४) दिसतो - 'इस शरीर में नाभि में ऊपर ऊपरी दिशा, नीचे निचली दिशा है, 'यह भाग इस दिशा में है ' -यों दिशा का निश्चय करना चाहिये । (५) ओकासतो - 'यह भाग इस अवकाश में स्थित है', यों उस उस अवकाश का निश्चय करना चाहिये । (६) परिच्छेदतो- परिच्छेद दो होते हैं-सभागपरिच्छेद (समानता के आधार पर सीमानिर्धारण), और विसभागपरिच्छेद (असमानता के आधार पर सीमा निर्धारण) । इनमें, यह जो भाग १. हत्थसङ्गुलिका ति । अङ्गुलिपन्ति ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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