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________________ ग्रन्थ के इस भाग की अन्तरङ्गकथा ७. छह अनुस्मृति-निर्देश दस कसिण और दस अशुभ कर्मस्थान के बाद दस अनुस्मृतिकर्मस्थान उद्दिष्ट हैं। पुनः पुनः उत्पन्न होनेवाली स्मृति ही अनुस्मृति है। प्रवर्तन के योग्य स्थान में ही प्रवृत्त होने के कारण अनुरूप स्मृति को भी 'अनुस्मृति' कहते हैं। दस अनुस्मृतियाँ इस प्रकार हैं १. बुद्धानुस्मृति-बुद्ध की अनुस्मृति। जो साधक यह अनुस्मृति प्राप्त करना चाहता है उसे प्रसादयुक्त चित्त से एकान्त में बैठकर "भगवान् अर्हत् सम्यक्सम्बुद्ध हैं, विद्याचरणसम्पन्न हैं, सुगत हैं, लोकवित् हैं, शास्ता हैं"-इत्यादि प्रकार से भगवान बुद्ध के गुणों का अनुस्मरण करना चाहिये। इस प्रकार बुद्ध के गुणों का अनुस्मरण करते समय साधक का चित्त न रागपर्युत्थित होता है, न द्वेषपर्युत्थित होता है, न मोहपर्युत्थित होता है। तथागत को चित्त का आलम्बन करने से उसका चित्त ऋजु होता है, नीवरण विष्कम्भित होते हैं, और बुद्ध के गुणों का ही चिन्तन करनेवाले वितर्क और विचार उत्पन्न होते हैं। बुद्धगुणों के वितर्क-विचार से प्रीति उत्पन्न होती है, प्रीति से प्रश्रब्धि पैदा होती है, जो काय और चित्त को प्रशान्त करती है। प्रशान्त भाव से सुख और सुख से समाधि की प्राप्ति होती है। इस प्रकार अनुक्रम से एक क्षण में ध्यान के अङ्ग उत्पन्न होते हैं। बुद्धगुणों की गम्भीरता के कारण और नाना प्रकार के गुणों की स्मृति होने के कारण यह चित्त अर्पणा को प्राप्त नहीं होता, केवल उपचार समाधि ही प्राप्त होती है। यह समाधि बुद्धगुणों के अनुस्मरण से उत्पन्न है, इसलिये इसे 'बुद्धानुस्मृति' कहते हैं। इस बुद्धानुस्मृति से अनुयुक्त साधक शास्ता में सगौरव होता है, प्रसन्न होता है, श्रद्धा, स्मृति, प्रज्ञा और पुण्य की विपुलता को प्राप्त करता है, भय भैरव को सहन करता है। बुद्धानुस्मृति के कारण उसका शरीर भी चैत्यगृह के समान पूजार्ह होता है, उसका चित्त बुद्धभूमि में प्रतिष्ठित होता है। (१) २. धर्मानुस्मृति-धर्मानुस्मृति को प्राप्त करने के इच्छुक साधक को विचार करना चाहिये"भगवान् से धर्म स्वाख्यात है। यह धर्म सान्दृष्टिक, अकालिक, एहिपश्यिक, औपनेयिक और विज्ञों से प्रत्यक्ष जानने योग्य है।" इस प्रकार धर्म की स्मृति करने से वह धर्म में सगौरव होता है। अनुत्तर धर्म के अधिगम में उसका चित्त प्रवृत्त होता है। इसमें अर्पणा समाधि प्राप्त नहीं होती, केवल उपचार समाधि ही प्राप्त होती है। (२) ३. सङ्घानुस्मृति-सङ्घानुस्मृति को प्राप्त करने के इच्छुक साधक को विचार करना चाहिये"भगवान् का श्रावक सङ्घ सुप्रतिपन्न है, ऋजुप्रतिपन्न, आर्यधर्मप्रतिपन्न एवं सम्यक्त्वप्रतिपन्न है। भगवान् का श्रावकसङ्घ स्रोतआपन्न आदि अष्ट पुद्गलों का बना हुआ है। वह दक्षिणेय है, अञ्जलिकरणीय है, और लोक के लिये अनुत्तर पुण्यक्षेत्र है।" इस प्रकार की सङ्कानुस्मृति से साधक सङ्घ में सगौरव होता है, अनुत्तर मार्ग की प्राप्ति में उसका चित्त दृढ होता है। यहाँ भी केवल उपचारसमाधि होती है। (३) ४. शीलानुस्मृति-शीलानुस्मृति में साधक एकान्त स्थान में अपने शीलों पर विचार करता है-"अहो! मेरे शील अखण्ड, अच्छिद्र, अशबल, अकिल्विष, स्वतन्त्र, विज्ञों से प्रशस्त, अपरामृष्ट और समाधिसांवर्तनिक हैं।" यदि साधक गृहस्थ हो तो गृहस्थ-शील का, प्रव्रजित हो तो प्रव्रजितशील का स्मरण करना चाहिये। इस अनुस्मृति से साधक शिक्षा में सगौरव होता है। अणुमात्र दोष में
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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