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________________ छअनुस्पतिनिद्देसो ३३ अथ वा अत्तनो फलदाने पकट्ठो कालो पत्तो अस्सा ति कालिको । को सो ? लोकियो कुसलधम्मो । अयं पन समनन्तरफलत्ता न कालिको ति अकालिको । इदं मग्गमेव सन्धाय वृत्तं ॥ (३) २१. "एहि, पस्स इमं धम्मं " ति एवं पवत्तं एहिपस्सविधिं अरहती ति एहिपस्सिको । कस्मा पनेस तं विधिं अरहती ति ? विज्जमानत्ता? परिसुद्धत्ता ३ च । रित्तमुट्ठियं हि हिरवा सुवण्णं वा अत्थी ति वत्वा पि "एहि पस्स इमं " ति न सक्का वत्तुं । कस्मा ? अविज्जमानत्ता । विज्जमानं पि च गूथं वा मुत्तं वा मनुञ्ञभावप्पकासनेन चित्तसम्पहंसनत्थं "एहि, पस्स इमं " ति न सक्का वत्तुं । अपि च खो पन तिणेहि वा पण्णेहि वा परिच्छादेतब्बमेव होति । कस्मा ? अपरिसुद्धत्ता । अयं पन नवविधो पि लोकुत्तरधम्मो सभावतो विज्जमानो विगतवलाहके आकासे सम्पुण्णचन्दमण्डलं विय पण्डुकम्बले निक्खितजातिमणि विय च परिसुद्धो । तस्मा विज्जमानत्ता परिसुद्धत्ता च एहिपस्सविधिं अरहती ति एहिपस्सिको ॥ (४) २२. उपनेतब्बो ति ओपनेय्यिको । अयं पनेत्थ विनिच्छयो — उपनयनं उपनयो, आदित्तं चेलं वा सीसं वा अज्जुपेक्खित्वा पि भावनावसेन अत्तनो चित्ते उपनयनं अरहती ति ओपनयिको, ओपनयिको व ओपनेय्यिको । इदं सङ्घते लोकुत्तरधम्मे युज्जति । असङ्खतो पन २०. अपना फल देने में समय नहीं लगाता, इसलिये अकाल (कालातीत) है। अकाल ही अकालिक है । अर्थात् पाँच-सात दिन बाद नहीं, अपितु प्रवर्तित होते ही फल देने वाला है। अथवा, फल देने में बहुत समय लगाता है, इसलिए 'कालिक' है। वह कौन ? लौकिक कुशल धर्म । किन्तु यह (अलौकिक धर्म) तत्काल फल देने से कालिक नहीं है, इसलिए अकालिक है । यह मार्ग के विषय में ही कहा गया है। (३) २१. " आओ, इस धर्म को देखो" - ऐसी 'एहिपस्सिक' (आओ, देखो वाली) विधि के योग्य होने से एहिपस्सिक है । क्यों इस विधि के योग्य है ? विद्यमान (परमार्थतः उपलब्ध) होने से तथा (क्लेश-मल के अभाव के कारण ) परिशुद्ध होने से खाली मुट्ठी में 'हिरण्य या सोना है' - ऐसा भले ही कोई कहे, पर 'आओ, इसे देखो' - ऐसा तो नहीं कह सकता। क्यों ? ( सचमुच वहाँ सोना) अविद्यमान होने से । ( दूसरी ओर ) मल-मूत्र के विद्यमान होने पर भी, मनोज्ञता-प्रकाशन द्वारा (मन प्रसन्न करने के लिये) 'आओ, इसे देखो' - ऐसा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि वह तो घास-फूस से ढँकने योग्य ही होता है। क्यों ? अशुद्धता के कारण । किन्तु यह सभी नव प्रकार का लोकोत्तर धर्म-स्वभावतः विद्यमान तथा मेघरहित आकाश में सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल के समान और पीले कम्बल पर रखी गयी जातिमणि के समान परिशुद्ध है । यों विद्यमान होने और परिशुद्ध होने से 'एहिपस्सिक' विधि के योग्य है, इसलिए एहिपस्सिक है । (४) २२. चित्त में लाने योग्य है, इसलिए ओपनेय्यिक है। अर्थ का स्पष्टीकरण यह है'उपनयन' उपनय (पास लाना) है। अपने जलते हुए कपड़ों या सिर को भी अनदेखा करते हुए, १. विधिं ति । विधानं, "एहि पस्सा" ति एवं पवत्तविधिवचनं । २. विज्जमानत्ता ति । परमत्थतो उपलब्भमानत्ता । ३. परिसुद्धत्ता ति । किलेसमलविरहेन सब्बथा विसुद्धत्ता ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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