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विसुद्धिमग्गो इस्सामच्छरियमायासाठेय्यथम्भसारम्भमानातिमानमदपमादतण्हाअविजातिविधाकुसलमूलदुच्चरितसङ्किलेसमलविसमसञ्जावितक्कपपञ्चचतुब्बिधविपरियेसआसवगन्थओघयोगअगतितण्हुप्पादुपादानपञ्चचेतोखिलविनिबन्धनीवरणाभिनन्दनाछविवादमूलतण्हाकायसत्तानुसयअमिच्छत्तनवतण्हामूलकदसाकुसलकम्मपथद्वासहिदिट्ठिगतअट्ठसततण्हाविचरितप्पभेदसब्बदरथपरिळाहकिलेससतसहस्सानि, सोपतो वा पञ्च किलेसखन्धअभिसङ्खारेदेवपुत्तमच्चुमारे अभञ्जि, तस्मा भग्गत्ता एतेसं परिस्सयानं भग्गवा ति वत्तब्बे भगा ति वुच्चति। आह चेत्थ
"भग्गरागो भग्गदोसो भग्गमोहो अनासवो। .
भग्गास्स पापका धम्मा भगवा तेन वुच्चती" ति॥ भाग्यवत्ताय चस्स सतपुजलक्खणधरस्स रूपकायसम्पत्ति दीपिता होति। भग्गदोसताय धम्मकायसम्पत्ति। तथा लोकियसरिक्खकानं बहुमतभावो, गहट्ठपब्बजितेहि अभिगमनीयता, अभिगतानं च नेसं कायचित्तदुक्खापनयने पटिबलभावो; आमिसदानधम्मदानेहि उपकारिता, लोकियलोकुत्तरसुखेहि च सञोजनसमत्थता दीपिता होति। (४)
अपत्राप्य (पाप करने में दूसरों से लज्जित न होना), क्रोध, उपनाह (=बँधा वैर), प्रक्ष (पाप छिपाना), प्रदाश (कठोर वचन से पीड़ित करना) ईर्ष्या, मात्सर्य (=कृपणता), माया, शठता, जड़ता, प्रतिहिंसा, मानातिमान (मान-स्वयं से हीनों की अपेक्षा अपने को श्रेष्ठ समझना एवं समानों के तुल्य समझना। अतिमान-समानों से अपने को श्रेष्ठ एवं असमानों के सदृश समझना। (वि० मा० सि० त्रिंशिका)। मद (स्व-सम्पत्ति में विशेष हर्ष), प्रमाद (क्लेशों से अपने चित्त की रक्षा न करना और प्रतिपक्षभूत कुशल धर्मों की भावना न करना), तृष्णा, अविद्या, तीन अकुशल मूल (राग, द्वेष, मोह) विषम संज्ञाएँ (=भ्रमात्मक ज्ञान), वितर्क, प्रपञ्च, चार (शुभ संज्ञा आदि) विपर्यास, आस्रव (=कामास्रव, भवास्रव, दृष्ट्यास्त्रव, अविद्यास्रव), ग्रन्थ (=अभिध्या लोभ, व्यापाद, शीलव्रत परामर्श, अभिनिवेश), ओघ, योग (ओघ, योग आस्रव के समानार्थक शब्द हैं), अगति (-छन्द, द्वेष, मोह, भय), तृष्णा-उपादान, पाँच चित्त के कील (=शास्ता, धर्म और सङ्घ तथा शिक्षा के प्रति सन्देह एवं सब्रह्मचारियों पर क्रोध), विनिबन्ध (=आसक्ति), नीवरण (रूपाभिनन्दन आदि पाँच) अभिनन्दन, छ: विवाद-मूल (द्र०-अ० नि० ३/६२) तृष्णाकाय, सात अनुशय, आठ मिथ्यात्व, नव तृष्णामूल, दस अकुशल कर्म-पथ, बासठ मिथ्यादृष्टियाँ, एक सौ आठ तृष्णाविचरित के भेद, एवं सभी एक लाख चिन्ताओं, पीड़ाओं, क्लेशों को, अथवा संक्षेप में–१. क्लेश, २. स्कन्ध, ३. अभिसंस्कार, ४. देवपुत्र (=मार), ५. मृत्यु-इन पाँच मारों को भग्न कर दिया, इसलिये इन विघ्नों को नष्ट कर देने से 'भग्गवा' (भग्नवान्) के स्थान पर भगवा (=भगवान्) कहे जाते हैं।
प्रस्तुत प्रसङ्ग में कहा गया है
"उन्होंने राग, द्वेष, मोह को भग्न कर दिया है, आस्रवरहित हैं, उनके सभी पाप-धर्म भग्न हो चुके हैं, इसलिये भगवान् कहे जाते हैं।"
'भाग्यवान्' कहे जाने से सौ पुण्यलक्षणों को धारण करने वाले, इन (बुद्ध) की रूपकाय