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________________ २४ विसुद्धिमग्गो इस्सामच्छरियमायासाठेय्यथम्भसारम्भमानातिमानमदपमादतण्हाअविजातिविधाकुसलमूलदुच्चरितसङ्किलेसमलविसमसञ्जावितक्कपपञ्चचतुब्बिधविपरियेसआसवगन्थओघयोगअगतितण्हुप्पादुपादानपञ्चचेतोखिलविनिबन्धनीवरणाभिनन्दनाछविवादमूलतण्हाकायसत्तानुसयअमिच्छत्तनवतण्हामूलकदसाकुसलकम्मपथद्वासहिदिट्ठिगतअट्ठसततण्हाविचरितप्पभेदसब्बदरथपरिळाहकिलेससतसहस्सानि, सोपतो वा पञ्च किलेसखन्धअभिसङ्खारेदेवपुत्तमच्चुमारे अभञ्जि, तस्मा भग्गत्ता एतेसं परिस्सयानं भग्गवा ति वत्तब्बे भगा ति वुच्चति। आह चेत्थ "भग्गरागो भग्गदोसो भग्गमोहो अनासवो। . भग्गास्स पापका धम्मा भगवा तेन वुच्चती" ति॥ भाग्यवत्ताय चस्स सतपुजलक्खणधरस्स रूपकायसम्पत्ति दीपिता होति। भग्गदोसताय धम्मकायसम्पत्ति। तथा लोकियसरिक्खकानं बहुमतभावो, गहट्ठपब्बजितेहि अभिगमनीयता, अभिगतानं च नेसं कायचित्तदुक्खापनयने पटिबलभावो; आमिसदानधम्मदानेहि उपकारिता, लोकियलोकुत्तरसुखेहि च सञोजनसमत्थता दीपिता होति। (४) अपत्राप्य (पाप करने में दूसरों से लज्जित न होना), क्रोध, उपनाह (=बँधा वैर), प्रक्ष (पाप छिपाना), प्रदाश (कठोर वचन से पीड़ित करना) ईर्ष्या, मात्सर्य (=कृपणता), माया, शठता, जड़ता, प्रतिहिंसा, मानातिमान (मान-स्वयं से हीनों की अपेक्षा अपने को श्रेष्ठ समझना एवं समानों के तुल्य समझना। अतिमान-समानों से अपने को श्रेष्ठ एवं असमानों के सदृश समझना। (वि० मा० सि० त्रिंशिका)। मद (स्व-सम्पत्ति में विशेष हर्ष), प्रमाद (क्लेशों से अपने चित्त की रक्षा न करना और प्रतिपक्षभूत कुशल धर्मों की भावना न करना), तृष्णा, अविद्या, तीन अकुशल मूल (राग, द्वेष, मोह) विषम संज्ञाएँ (=भ्रमात्मक ज्ञान), वितर्क, प्रपञ्च, चार (शुभ संज्ञा आदि) विपर्यास, आस्रव (=कामास्रव, भवास्रव, दृष्ट्यास्त्रव, अविद्यास्रव), ग्रन्थ (=अभिध्या लोभ, व्यापाद, शीलव्रत परामर्श, अभिनिवेश), ओघ, योग (ओघ, योग आस्रव के समानार्थक शब्द हैं), अगति (-छन्द, द्वेष, मोह, भय), तृष्णा-उपादान, पाँच चित्त के कील (=शास्ता, धर्म और सङ्घ तथा शिक्षा के प्रति सन्देह एवं सब्रह्मचारियों पर क्रोध), विनिबन्ध (=आसक्ति), नीवरण (रूपाभिनन्दन आदि पाँच) अभिनन्दन, छ: विवाद-मूल (द्र०-अ० नि० ३/६२) तृष्णाकाय, सात अनुशय, आठ मिथ्यात्व, नव तृष्णामूल, दस अकुशल कर्म-पथ, बासठ मिथ्यादृष्टियाँ, एक सौ आठ तृष्णाविचरित के भेद, एवं सभी एक लाख चिन्ताओं, पीड़ाओं, क्लेशों को, अथवा संक्षेप में–१. क्लेश, २. स्कन्ध, ३. अभिसंस्कार, ४. देवपुत्र (=मार), ५. मृत्यु-इन पाँच मारों को भग्न कर दिया, इसलिये इन विघ्नों को नष्ट कर देने से 'भग्गवा' (भग्नवान्) के स्थान पर भगवा (=भगवान्) कहे जाते हैं। प्रस्तुत प्रसङ्ग में कहा गया है "उन्होंने राग, द्वेष, मोह को भग्न कर दिया है, आस्रवरहित हैं, उनके सभी पाप-धर्म भग्न हो चुके हैं, इसलिये भगवान् कहे जाते हैं।" 'भाग्यवान्' कहे जाने से सौ पुण्यलक्षणों को धारण करने वाले, इन (बुद्ध) की रूपकाय
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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