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________________ ३५२ विसुद्धिमग्गो ६६. 'चेतोपरियाणं परित्त-महग्गत-अप्पमाण-मग्ग-अतीतानागत-पच्चुप्पन्नबहिद्धारम्मणवसेन अट्ठसु आरम्मणेसु पवत्तति । कथं? तं हि परेसं कामावचरचित्तजाननकाले परित्तारम्मणं होति। रूपावचरअरूपावचरचित्तजाननकाले महग्गतारम्मणं होति। मग्गफलजाननकाले अप्पमाणारम्मणं होति। एत्थ च पुथुज्जनो सोतापन्नस्स चित्तं न जानाति । सोतापन्नो वा सकदागामिस्सा ति एवं याव अरहतो नेतब्बं । अरहा पंन सब्बेसं चित्तं जानाति। अञ्जो पि उपरिमो हेट्रिमस्सा ति अयं विसेसो वेदितब्बो। मग्गचित्तारम्मणकाले मग्गारम्मणं होति। यदा पन अतीते सत्तदिवसब्भन्तरे च अनागते सत्तदिवसब्भन्तरे च परेसं चित्तं जानाति, तदा अतीतारम्मणं अनागतारम्मणं च होति। ६७. कथं पच्चुप्पनारम्मणं होति? पच्चुप्पन्नं नाम तिविधं-खणपच्चुप्पन्नं, सन्ततिपच्चुप्पन्नं, अद्धापच्चुप्पन्नं च। तत्थ उप्पादट्ठितिभङ्गप्पत्तं खणपच्चुप्पन्नं । (१) एकद्वेसन्ततिवारपरियापन्नं सन्ततिपच्चुप्पन्नं । तत्थ अन्धकारे निसीदित्वा आलोकट्ठानं गतस्स न ताव आरम्मणं पाकटं होति, याव पन तं पाकटं होति, एत्थन्तरे एकद्वे सन्ततिवारा वेदितब्बा। आलोकट्ठाने विचरित्वा ओवरकं होने से प्रत्युत्पन्न आलम्बन वाला होता है। वह (ज्ञान) स्वयं के उदर में होने वाले शब्द को सुनते समय अध्यात्म आलम्बन वाला होता है एवं दूसरों के शब्द सुनते समय बाह्य आलम्बन वाला, यों दिव्यश्रोत्रधातु ज्ञान की प्रवृत्ति चार आलम्बनों में जाननी चाहिये। ६६. चेतःपर्यायज्ञान १. परिमित, २. महद्गत, ३. अप्रमाण, ४. मार्ग, ५. अतीत, ६. अनागत, ७. प्रत्युत्पन्न एवं ८. बाह्य आलम्बन-इस तरह आठ आलम्बनों में प्रवृत्त होता है। कैसे? वह दूसरों के कामावचर चित्त का ज्ञान करते समय परिमित आलम्बन वाला होता है। रूपावचर एवं अरूपावचर चित्त को जानते समय महद्गत आलम्बन वाला होता है। मार्ग-फल को जानते समय अप्रमाण आलम्बन वाला होता है। एवं यहाँ, पृथग्जन स्रोतआपन्न के चित्त को एवं स्रोतआपन्न सकृदागामी के चित्त को नहीं जान सकते—इसी प्रकार अर्हत् तक इसी नय को ले जाना चाहिये। किन्तु अर्हत् सबके चित्त को जानता है एवं ऊपर के (स्तर वाले) अन्य भी नीचे वाले केयह अन्तर समझना चाहिये। जब वह मार्ग-चित्त को आलम्बन बनाता है, तब मार्ग को आलम्बन बनाने वाला होता है। किन्तु जब विगत अनागत सात दिनों के अन्तराल में दूसरों के चित्त को जानता है, तब वह अतीत को या अनागत को आलम्बन बनाने वाला होता है। ६७. प्रत्युत्पन्न आलम्बन वाला कैसे होता है? प्रत्युत्पन्न त्रिविध है-क्षण-प्रत्युत्पन्न एवं सन्ततिप्रत्युत्पन्न तथा अध्व-प्रत्युत्पन्न। इनमें, जो उत्पाद, स्थिति एवं भङ्ग को प्राप्त होता है, वह क्षण-प्रत्युत्पन्न है। (१) जो सन्तति की एक-दो बारी (एक के बाद एक करके आना) के अन्तर्गत आता है, . उसे सन्ततिप्रत्युत्पन्न कहते हैं। अन्धकार में (कुछ समय तक) बैठने के बाद आलोकित स्थान पर गये हुए को (आँखें चौंधिया जाने के कारण) उसी समय आलम्बन प्रकट नहीं होता। जब तक वह प्रकट होता है, १. सन्ततिवारा ति। रूपसन्ततिवारा।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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