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________________ विसुद्धिमग्गो T इतीति । एवं। साकारं सउद्देसं ति । नामगोत्तवसेन सउद्देसं । वण्णादिवसेन साकारं । नामगोत्तेन हि सत्तो - 'तिस्सो', 'कस्सपो' ति उद्दिसियति । वण्णादीहि - सामो, ओदातो ति नानत्ततो पञ्ञायति । तस्मा नामगोत्तं उद्देसो, इतरे आकारा । अनेकविहितं पुब्बेनिवासमनुस्सरतीति । इदं उत्तानत्थमेवा ति ॥ पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणकथा ॥ ३४० चुतूपपातञाणकथा ४५. सत्तानं चुतूपातञाणकथाय - चुतूपपातत्राणाय ( दी० नि० १/९१) ति । चुतिया च उपपाते च आणाय। येन आणेन सत्तानं चुति च उपपातो च आयति, तदत्थं । दिब्बचक्खुत्राणत्थं ति वुत्तं होति । चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेती ति । परिकम्मचित्तं अभिनीहरति चेव अभिनिन्नामेति च । सो ति । सो कतचित्ताभिनीहारो भिक्खु । दिब्बेनाति आदीसु पन - दिब्बसदिसत्ता दिब्बं । देवतानं हि सुचरितकम्मनिब्बत्तं पित्तसेम्हरुहिरादीहि अपलिबुद्धं उपक्किलेसविमुत्तताय दूरे पि आरम्मणपटिच्छनसमत्थं दिब्बं पसादचक्खु होति । इदं चापि विरियभावनाबलनिब्बत्तं त्राणचक्खु तादिसमेवा ति दिब्बसदिसत्ता दिब्बं । दिब्बविहारवसेन पटिलद्धत्ता अत्तना च दिब्बविहारसन्निस्सित्ता पि दिब्बं । आलोकपरिग्गहेन महाजुतिकत्ता पि दिब्बं । तिरोकुड्डादिरूपदस्सनेन महागतिकत्ता पि दिब्बं । तं सब्बं सद्दसत्थानुसारेन दिब्बं । के अनुस्मरण को दिखलाने के लिये कहा गया है। सो ततो चुतो इधूपपन्नो - वह मैं उस अनन्त रूप- सम्पत्ति वाले स्थान से च्युत होकर इस अमुक नाम वाले क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ । इति — इस प्रकार । साकारं सउद्देसं - नाम - गोत्र के अनुसार सोद्देश्य । वर्ण आदि के अनुसार साकार। क्योंकि नाम - गोत्र के अनुसार ही सत्त्व 'तिष्य' या 'कश्यप' कहा जाता है। वर्ण आदि के द्वारा गोरा-काला आदि विभिन्नता जानी जाती है। अतः नाम गोत्र उद्देश्य है, शेष आकार हैं। अनेकविहितं पुब्बेनिवासमनुस्सरति - इसका अर्थ स्पष्ट ही है ॥ पूर्वनिवासानुस्मृतिज्ञान का वर्णन सम्पन्न ॥ च्युत्युत्पादज्ञान ४५. सत्त्वों की च्युति एवं उत्पाद के वर्णन में, चुतूपपातञाणाय (दी० नि० १ / ९१ ) च्युति एवं उत्पाद विषयक ज्ञान के लिये। जिस ज्ञान द्वारा सत्त्व, च्युति एवं उत्पाद को जानते हैं, उसके लिये। अर्थात् दिव्यचक्षु ज्ञान के लिये । चित्तं अभिनीहरति, अभिनिन्नामेति — उसकी ओर परिकर्मचित्त को ले जाता, झुकाता है । सो-चित्त को उस ओर ले जाने वाला वह भिक्षु । दिब्बेन आदि में, दिव्य के समान होने से दिव्य । क्योंकि देवताओं का दिव्य चक्षुः प्रसाद सत्कर्म से उत्पन्न, पित्त कफ रुधिर आदि के विघ्नों से रहित, उपक्लेशों से विमुक्त होने से दूरस्थ आलम्बन का भी ग्रहण करने में समर्थ होता है। वीर्य - भावना के बल से उत्पन्न यह ज्ञानचक्षु भी वैसा ही होता है। अतः दिव्य के समान होने से दिव्य है । दिव्यविहार के कारण प्राप्त होने से एवं दिव्यविहार पर स्वयं भी आश्रित होने से दिव्य है। आलोक का ग्रहण करने से,
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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