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________________ ३३८ विसुद्धिमग्गो ४१. किं कारणा एवं लोको विनस्सति? अकुसलमूलकारणा। अकुसलमूलेसु हि उस्सन्नेसु एवं लोको विनस्सति। सो च खो रागे उस्सन्नतरे अग्गिना विनस्सति । दोसे उस्सन्नतरे उदकेन विनस्सति। केचि ,पन दोसे उस्सन्नतरे अग्गिना, रागे उस्सन्नतरे उदकेना ति वदन्ति। मोहे उस्सन्नतरे वातेन विनस्सति। एवं विनस्सन्तो पि च निरन्तरमेव सत्तवारे अग्गिनां विनस्सति, अट्टमे वारे उदकेन, पुन सत्त वारे अग्गिना, अट्ठमे वारे उदकेना ति एवं अट्ठमे अट्ठमे वारे विनस्सन्तो सत्तक्खत्तुं उदकेन विनस्सित्वा पुन सत्तवारे अग्गिना नस्सति। एतावता तेसट्ठि कप्पा अतीता होन्ति। एत्थन्तरे उदकेन नस्सनवारं सम्पत्तं पि पटिबाहित्वा लद्धोकासो वातो परिपुण्णचतुसट्ठिकप्पायुके सुभकिण्हे विद्धंसेन्तो लोकं विनासेति। ___४२. पुब्बेनिवासं अनुस्सरन्तो पि च कप्पानुस्सरणको भिक्खु एतेसु कप्पेसु अनेके पि संवट्टकप्पे, अनेके पि विवट्टकप्पे, अनेके पि संवट्टविवट्टकप्पे अनुस्सरति। कथं? "अमुत्रासिं" (दी० नि० १/९०) ति आदिना नयेन। तत्थ अमुत्रासिं ति। अमुम्हि संवट्टकप्पे अहं अमुम्हि भवे वा योनिया वा गतिया वा विज्ञाणट्ठितिया वा सत्तावासे वा सत्तनिकाये वा आसिं। एवंनामो ति। तिस्सो वा, फुस्सो वा। एवंगोत्तो ति कच्चानो वा कस्सपो, वा । इदमस्स चार असंख्येयों को मिलाकर एक महाकल्प होता है। यों, वायु द्वारा विनाश एवं पुनः सृष्टि को जानना चाहिये। (३) ४१. लोक का इस प्रकार विनाश किस कारण से होता है ? (तीन) अकुशल मूलों के कारण से। राग के अति आधिक्य से वह (लोक) अग्नि द्वारा विनष्ट होता है। द्वेष के अति आधिक्य से जल द्वारा विनष्ट होता है। किन्तु कुछ लोग 'द्वेष के अधिक बढ़ने से अग्नि द्वारा एवं राग के अधिक बढ़ने से जल द्वारा'-ऐसा कहते हैं। मोह के अधिक बढ़ने से वायु द्वारा विनष्ट होता है। यों विनष्ट होते समय, निरन्तर सात बार अग्नि द्वारा विनष्ट होता है एवं आठवीं बार जल द्वारा। पुनः सात बार अग्नि द्वारा. एवं आठवीं बार जल द्वारा। एवं इस प्रकार जब वह सात बार अग्नि द्वारा एव आठवीं बार जल द्वारा विनष्ट हो चुका होता है, तो वह पुनः सात बार अग्नि द्वारा विनष्ट होता है। इतना होते होते तिरसठ कल्प बीत जाते हैं। इस बीच वायु जल द्वारा विनाश का क्रम तोड़ने का अवसर पा जाती है एवं (इस बार) वह पूरे चौसठ कल्प की आयु वाले शुभकृत्स्त्र का विध्वंस करते हुए लोक का विनाश करती है। . ४२. कल्पों का अनुस्मरण करने वाला भिक्षु, पूर्वनिवास का अनुस्मरण करते समय भी, इन कल्पों में अनेक संवर्तकल्पों का, अनेक विवर्तकल्पों का एवं अनेक संवर्त-विवर्तकल्पों का अनुस्मरण करता है। कैसे? "वहाँ था" (दी० नि० १/९०) आदि प्रकार से। इनमें, अमुत्रासिं अमुक संवर्तकल्प में, अमुक भव, योनि, गति, विज्ञानस्थिति, सत्त्वावास या सत्त्वनिकाय में था। एवंनामो-तिष्य या पुष्य। एवंगोत्तो-कात्यायन या काश्यप। यह पूर्वजन्म के अपने
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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