SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३२ विसुद्धिमग्गो ३०. तदा च आभस्सरब्रह्मलोके पठमतराभिनिब्वत्ता सत्ता आयुक्खया वा पुञक्खया वा ततो चवित्वा इधूपपजन्ति। ते होन्ति सयम्पभा अन्तलिंक्खचरा । ते अग्गझसुत्ते (दी० नि० ३/६५६) वुत्तनयेन तं रसपथविं सायित्वा तण्हाभिभूता आलुप्पकारकं परिभुञ्जितुं उपक्कमन्ति। अथ नेसं सयम्पभा अन्तरधायति, अन्धकारो होति। ते अन्धकारं दिस्वा भायन्ति। ३१. ततो नेसं भयं नासेत्वा सूरभावं जनयन्तं परिपुण्णपण्णासयोजनं सुरियमण्डलं पातुभवति। ते तं दिस्वा "आलोकं पटिलभिम्हा" ति हट्ठतुट्ठा हुत्वा "अम्हाकं भीतानं भयं नासेत्वा सूरभावं जनयन्तो उठ्ठितो, तस्मा सुरियो होतू" ति सुरिझो त्वेवस्स नामं करोन्ति । अथ सुरिये दिवसं आलोकं कत्वा अत्थङ्गते, “यं पि आलोकं लभिम्हा, सो पि नो नट्ठो'' ति पुन भीता होन्ति। तेसं एवं होति "साधु वतस्स सचे अखं आलोकं लभेय्यामा" ति। तेसं चित्तं चत्वा विय एकूनपण्णासयोजनं चन्दमण्डलं पातुभवति। ते तं दिस्वा भिय्योसो मत्ताय हट्टतुट्ठा हुत्वा "अम्हाकं छन्दं ञत्वा विय उछितो, तस्मा चन्दो होतू" ति चन्दो त्वेवस्स नामं करोन्ति। ___ एवं चन्दिमसुरियेसु पातुभूतेसु नक्खत्तानि तारकरूपानि पातुभवन्ति। ततो पभुति रत्तिन्दिवा पञ्जायन्ति, अनुक्कमेन मासद्धमास-उतु-संवच्छरा। हैं। वे उसे बन्द मुख वाले 'धर्मकरण' (पानी छानने का पात्र) में स्थित जल के समान, चारों ओर से बन्दकर, रोके रहती है। जब स्वच्छ जल का प्रयोग होने लगता है, तो ऊपर की 'रसपृथ्वी' (=ह्यमस) उत्पन्न होती है। वह जलरहित पायस (=खीर) की ऊपरी सतह के समान, गन्ध एवं रसमयी होती है। ३०. तब वे सत्त्व जिनका आभास्वर में या ब्रह्मलोक में पुनर्जन्म हुआ था, आयुःक्षय या पुण्यक्षय के फलस्वरूप वहाँ से च्युत होकर यहाँ (पृथ्वी पर) उत्पन्न होते हैं। वे स्वयम्प्रभ एवं आकाशचारी होते हैं। अग्गजसुत्त (दी० नि० ३/६५६) में कथित प्रकार से ही, वे रस पृथ्वी का स्वाद लेकर तृष्णा से अभिभूत हो जाते हैं; एवं ग्रास-ग्रास करके (उसे) खाने का उपक्रम करते हैं। तब उनकी स्वयं-प्रभा अन्तर्हित हो जाती है, अन्धकार हो जाता है। वे अन्धकार को देखकर डर जाते हैं। ३१. तब इस भय का नाश एवं शूरता उत्पन्न करते हुए पूरे पचास मण्डल तक विस्तृत सूर्यमण्डल प्रादुर्भूत होता है। वे उस देखकर 'प्रकाश मिला'-यों मुदित होते हैं एवं 'हम भीतों के भय का नाश एवं शूरता उत्पन्न करते हुए उदित हुआ, अतः सूर्य (के रूप में प्रसिद्ध) हों'यों 'सूर्य' नाम देते हैं। तब दिन में प्रकाश करने के बाद सूर्य के अस्त हो जाने पर 'जो प्रकाश मिला था वह भी नष्ट हो गया'-यों पुनः डर जाते हैं। उन्हें ऐसा लगता है-'अच्छा हो यदि दूसरा प्रकाश मिल जाय।' मानों उनके चित्त (की बात) जानते हुए, उनचास योजन विस्तृत चन्द्रमण्डल प्रादुर्भूत होता है। वे उसे देखकर पहले से भी अधिक प्रसन्न होकर हमारे छन्द (=अभिलाष) को जानता हुआसा यह उदित होता है, अतः 'चन्द्र हो'-यों उसे चन्द्र नाम देते हैं। १. आलुप्पकारकं ति। आलोपं कत्वा कत्वा ति वदन्ति। आलुप्पनं-विलोपं कत्वा ति अत्थो।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy