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________________ इद्धिविधनिद्देसो ३११ पादकज्झानारम्मणेन इद्धिचित्तेन सहजातं सुखसखं च लहुसनं च ओक्कमति, पविसति, फस्सेति, सम्पापुणाति। सुखसञा नाम उपेक्खासम्पयुत्तसज्ञा। उपेक्खा हि सन्तं सुखं ति वुत्ता। सा येव च सज्ञा नीवरणेहि चेव वितक्कादीहि पच्चनीकेहि च विमुत्तत्ता लहुसवा ति वेदितब्बा। तं ओक्कन्तस्स पनस्स करजकायो पि तूलपिचु विय सल्लहुको होति। सो एवं वातुक्खित्ततूलपिचुना विय सल्लहुकेन दिस्समानेन कायेन ब्रह्मलोकं गच्छति । एवं गच्छन्तो च सचे इच्छति, पथवीकसिणवसेन आकासे मग्गं निम्मिनित्वा पदसा गच्छति। सचे इच्छति वायोकसिणवसेन वायुं अधि?हित्वा तूलपिचु विय वायुना गच्छति। अपि च गन्तुकामता एव एत्थ पमाणं। सति हि गन्तुकामताय एवं कतचित्ताधिट्ठानो अधिट्ठानवेगुक्खित्तो व सो इस्सासखित्तसरो विय दिस्समानो गच्छति। ४६. चित्तवसेन कायं परिणामेती ति। कायं गहेत्वा चित्ते आरोपेति। चित्तानुगतिकं करोति सीघगमनं। चित्तगमनं हि सीघं होति। सुखसखं च लहुसनं च ओकमती ति। रूपकायारम्मणेन इद्धिचित्तेन सहजातं सुखसखंच लहुसखंच ओक्कमती ति। सेसं वुत्तनयेनेव वेदितब्बं । इदं पन चित्तगमनमेव होति। एवं अदिस्समानेन कायेन गच्छन्तो पनायं किं तस्स अधिट्ठानचित्तस्स उप्पादक्खणे - को) काया के अनुरूप मन्दगामी बनाता है, क्योंकि काया का गमन (गति) मन्द होता है। सुखसचं च लहुसखं च ओकमतो-पादक ध्यान को आलम्बन बनाने वाले ऋद्धिचित्त के साथ उत्पन्न होने वाली सुखसंज्ञा एवं लघुसंज्ञा को प्राप्त करता है (उसमें) प्रवेश करता है, स्पर्श करता है, (वहाँ तक) पहुँचता है। सुखसंज्ञा का तात्पर्य है उपेक्षा से सम्प्रयुक्त संज्ञा, क्योंकि उपेक्षा को शान्त और सुख कहा गया है। नीवरणों एवं वितर्क आदि विपरीत धर्मों से विमुक्त होने के कारण उसी संज्ञा को लघुसंज्ञा समझना चाहिये। उसे प्राप्त करने वाले का करज काय भी रूई के टुकड़े के समान हल्का होता है। वह हवा में उड़ाये गये रूई के टुकड़ा के समान भारहीन दिखलायी देने वाली काया से ब्रह्मलोक जाता है। यों जाते समय यदि चाहता है तो पृथ्वीकसिण द्वारा आकाश में मार्ग का निर्माण कर पैदल जाता है। यदि चाहता है तो वायुकसिण द्वारा वायु का अधिष्ठान कर, रूई के टुकड़े के समान उड़ता हुआ जाता है। फिर भी, यहाँ जाने की इच्छा होना भी प्रमाण है। यदि जाने की इच्छा होती है, तो चित्त द्वारा यों अधिष्ठान करने वाला (योगी) अधिष्ठान के वेग से प्रक्षिप्त-सा धनु, से छोड़े गये बाण के समान, दिखलायी पड़ता हुआ जाता है। ४६. चित्तवसेन कायं परिणामेति-काय को चित्त पर आरोपित करता है। चित्त के अनुरूप, (काय को भी) शीघ्रगामी बनाता है; क्योंकि चित्त का गमन शीघ्र होता है। सुखसञ्बं च लहुसनं च ओक्कमति-रूपकाय को आलम्बन बनाने वाले ऋद्धिचित्त के साथ उत्पन्न होने वाली सुखसंज्ञा एवं लघुसंज्ञा तक पहुँचता है। शेष को उक्त प्रकार से ही जानना चाहिये। किन्तु यहाँ गमन केवल चित्त का ही होता है। किन्तु यों अदृश्य काया से जाते समय, क्या अपने अधिष्ठान चित्त के उत्पादक्षण में जाता १. थेरो ति। अट्ठकथाचरियानं अन्तरे एको थेरो। 2-22
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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