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द्धिविधनिसो
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होति । थोकं पि बहुकं अधिट्ठाति- बहुकं होतू ति, बहुकं होति । दिब्बेन चक्खुना तस्स ब्रह्मनो रूपं पस्सति। दिब्बाय सोतधातुया तस्स ब्रह्मनो सद्दं सुणाति । चेतोपरियत्राणेन तस्स ब्रह्मनो चित्तं जानाति । सचे सो इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो दिस्समानेन कायेन ब्रह्मलोकं गन्तुकामो होति, कायवसेन चित्तं परिणामेति, कायवसेन चित्तं अधिट्ठाति । कायवसेन चित्तं परिणामेत्वा कायवसेन चित्तं अधिट्ठहित्वा सुखस च लहुसञ् च ओक्कमित्वा दिस्समानेन कायेन ब्रह्मलोकं गच्छति । सचे सो इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो अदिस्समानेन कायेन ब्रह्मलोकं गन्तुकामो होति, चित्तवसेन कायं परिणामेति, चित्तवसेन कार्य अधिट्ठाति । चित्तवसेन कायं परिणामेत्वा, चित्तवसेन कार्य अधिट्ठहित्वा सुखसञ् च लहुसञ्चं च ओक्कमित्वा अदिस्समानेन कायेन ब्रह्मलोकं गच्छति। सो तस्स ब्रह्मनो पुरतो रूपं अभिनिम्मिनाति मनोमयं सब्बङ्गपच्चङ्गि अहीनिन्द्रियं । सचे सो इद्धिमा चङ्कमति, निम्मितो पि तत्थ चङ्कमति । सचे सो इद्धिमा तिट्ठति .... निसीदति... सेय्यं कप्पेति, निम्मितो पि तत्थ सेय्यं कप्पेति । सचे सो इद्धिमा धूमायति... पज्जलति... धम्मं भासति... पञ्हं पुच्छति... पञ्हं पुट्ठो विस्सज्जेति, निम्मितो पि तत्थ पञ्हं पुट्ठो विस्पज्जेति । सचे सो इद्धिमा तेन ब्रह्युना सद्धिं सन्तिट्ठति, सल्लपति, साकच्छं समापज्जति,
यह पालि (टिसम्भिदामग्ग पालि) है - " ब्रह्मलोक तक भी काया द्वारा वश प्राप्त करता है। चित्त को वश में कर चुका वह ऋद्धिमान् यदि ब्रह्मलोक जाना चाहता है, तो ( ब्रह्मलोक ) दूर होने पर भी समीप के लिये अधिष्ठान करता है- 'समीप हो जाय' तो समीप हो जाता है। ( इसी प्रकार किसी के) पास होने पर दूर होने के लिये अधिष्ठान करता है - 'दूर हो जाय, तो दूर हो जाता है। बहुत होने पर भी अल्प के लिये अधिष्ठान करता है - 'अल्प (थोड़ा ) हो जाय' तो अल्प हो जाता है । अल्प होने पर भी बहुत के लिये अधिष्ठान करता है - ' बहुत हो जाय' तो बहुत हो जाता है ।
दिव्यचक्षु से उस ब्रह्मा का रूप देखता है, दिव्य श्रोत्र से उस ब्रह्मा का शब्द सुनता है। चेत: पर्याय ज्ञान से उस ब्रह्मा के चित्त को जानता है। यदि चित्त को वश में कर चुका वह ऋद्धिमान् दृश्यमान काया से ब्रह्मलोक जाना चाहता है, तो काया के रूप में चित्त को परिणत करता है, अधिष्ठान करता है कि चित्त काया के रूप में (रूपी दृश्यमान) हो जाय। काया के रूप में चित्त को बदलकर, काय के रूप में चित्त का अधिष्ठान कर, सुखसंज्ञा' एवं लघुसंज्ञा को प्राप्त करता है, एवं दृश्यमान काय से ब्रह्मलोक जाता है।
"यदि चित्त को वश में कर चुका वह ऋद्धिमान् अदृश्यमान काया से ब्रह्मलोक जाना चाहता है, तो काया की चित्र के रूप में बदल देता है, अधिष्ठान करता है कि काया चित्त के रूप में (अरूपी) हो जाय। चित्त के रूप में काया को परिणत कर, चित्त के रूप में काया का अधिष्ठान कर, सुखसंज्ञा एवं लघुसंज्ञा प्राप्त कर, अदृश्यमान काया से ब्रह्मलोक जाता है। वह उस ब्रह्मा के समक्ष मनोमय रूप निर्मित करता है, जिसमें सभी अङ्ग प्रत्यङ्ग होते हैं, जिसमें किसी इन्द्रिय की कमी नहीं होती। यदि वह ऋद्धिमान् चंक्रमण करता है, तो निर्मित भी वहाँ चक्रमण करता है। यदि वह ऋद्धिमान् खड़ा होता... बैठता ... सोता है, तो निर्मित भी वहाँ सोता है। यदि वह ऋद्धिमान् धुँआता है, जलता है... धर्मप्रवचन करता है... प्रश्न पूछता है... उत्तर देता है तो
१, १. सुखसंज्ञा एवं लघुसंज्ञा के विस्तृत अर्थ के लिये द्रष्टव्य इसी प्रकरण का आगे पृ० ३११ ।