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________________ इद्धिविधनिद्देसो ३०५ नासक्खि। 'अवसेसा भिक्खू किर आदितो पट्ठाय सब्बपाटिहारियानि कातुं सक्कुणेय्युं, इमं पन ठानं पत्वा एवं खिप्पनिसन्तिनो हुत्वा समापज्जितुं न सक्खिस्सन्ती' ति तेसं भगवा नागराजदमनं नानुजानि। ३८. नागराजा "अहं इमस्स समणस्स नासावातेन लोमकूपं पि चालेतुं नासक्खि, महिद्धिको समणो" ति चिन्तेसि। थेरो अत्तभावं विजहित्वा सुपण्णरूपं अभिनिम्मिनित्वा सुपण्णवातं दस्सेन्तो नागराजानं अनुबन्धि। नागराजा तं अत्तभावं विजहित्वा माणवकवण्णं अभिनिम्मित्वा “भन्ते, तुम्हाकं सरणं गच्छामी' ति वदन्तो थेरस्स पादे वन्दि। थेरो "सत्था, नन्द आगतो, एहि गमिस्सामा" ति नागराजानं दमयित्वा निब्बिसं कत्वा गहेत्वा भगवतो सन्तिकं अगमासि। नागराजा भगवन्तं वन्दित्वा "भन्ते, तुम्हाकं सरणं गच्छामी" ति आह। भगवा "सुखी होहि, नागराजा" ति वत्वा भिक्खुसङ्घपरिवुतो अनाथपिण्डिकस्स निवेसनं अगमासि। ३९. अनाथपिण्डिको-"किं, भन्ते, अतिदिवा आगतत्था" ति आह।"मोग्गल्लानस्स च नन्दोपनन्दस्स च सङ्गामो अहोसी" ति। "कस्स, भन्ते, जयो, कस्स पराजयो" ति? "मोग्गल्लानस्स जयो, नन्दस्स पराजयो" ति। अनाथपिण्डिको "अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा सत्ताहं एकपटिपाटिया' भत्तं, सत्ताहं थेरस्स सक्कारं करिस्सामी" ति वत्वा सत्ताहं बुद्धपमुखानं पञ्चन्नं भिक्खुसतानं महासकारं अकासि। 'शेष भिक्षु आरम्भ से लेकर सभी प्रातिहार्य कर सकते हैं, किन्तु ऐसी स्थिति आने पर क्षिप्रनिशान्तिक होकर समापन नहीं हो सकते'-यह सोचकर भगवान् ने उन्हें नागराज के दमन की अनुमति नहीं दी थी। ३८. नागराज ने सोचा-'मैं फुफकार से इस श्रमण का बाल भी बांका नहीं कर सका), यह महाऋद्धिमान् श्रमण है।' स्थविर ने अपना वह रूप त्यागकर गरुड़ का रूप धारण कर लिया एवं गरुड़-वायु (पंखों की फड़फड़ाहट से उत्पन्न तीव्र वायु) का प्रदर्शन करते हुए नागराज को जकड़ लिया। नागराज ने अपना रूप त्याग कर माणवक का रूप धारण किया एवं 'भन्ते; आप की शरण में आया हूँ'-यों कहते हुए स्थविर की चरण-वन्दना की। स्थविर ने कहा-"नन्द, शास्ता पधारे हैं। आओ चलें", एवं नागराज को दमित कर, विषहीन कर, (अपने साथ) लेकर भगवान् के पास आये। . नागराज ने भगवान् की वन्दना कर कहा-"भन्ते! आपकी शरण में जाता हूँ।" भगवान् ने कहा-"सुखी हो, नागराज!"। तब भिक्षुसंघ से घिरे हुए, अनाथपिण्डक के निवास पर आये। ३९. अनाथपिण्डक ने पूछा-"भन्ते, विलम्ब से क्यों आये हैं?" "मौद्गल्यायन स्थविर एवं नन्दोपनन्द के बीच संग्राम हो रहा था।" "भन्ते कौन जीता, कौन हारा?" "मौद्गल्यायन जीते, नन्द हारा।" अनाथपिण्डक ने कहा-"भन्ते! सप्ताह भर के लिये भगवान् निरन्तर मेरा भोजन स्वीकार १. एकपटिपाटिया ति। एकाय पटिपाटिया, निरन्तरं ति अत्थो।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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