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द्विविधनिस
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३४. अथ खो आयस्मा रट्ठपालो भगवन्तं एतदवोच - " पुब्बे, भन्ते, इमस्मि पदेसे ठितो सिनेरु पस्सामि, सिनेरुपरिभण्डं पस्सामि, तावतिंसं पस्सामि, वेजयन्तं पस्सामि, वेजयन्तस्स पासादस्स उपरि धजं पस्सामि । को नु खो, भन्ते, हेतु, को पच्चयो, यं एतरहि नेव सिनेरुं पस्सामि...पे०...न वेजयन्तस्स पासादस्स उपरि धजं पस्सामी" ति ? " अयं, रट्ठपाल, नन्दोपनन्दो नाम नागराजा तुम्हाकं कुपितो सिनेरुं सत्तक्खत्तुं भोगेहि परिक्खिपित्वा उपरि फणेन पटिच्छादेत्वा अन्धकारं कत्वा ठितो" ति । "दमेमि नं, भन्ते" ति । न भगवा अनुजानि । अथ खो आयस्मा भद्दियो, आयस्मा राहुलो ति अनुक्कमेन सब्बे पि भिक्खू उट्ठहिंसु । न भगवा अनुजानि ।
३५. अवसाने महामोग्गलानत्थेरो - " अहं, भन्ते, दमेमि नं" ति आह । “दमेहि, मोगल्लाना" ति भगवा अनुजानि । थेरो अत्तभावं विजहित्वा महन्तं नागराजवण्णं अभिनिम्मिनित्वा नन्दोपनन्दं चुद्दसक्खत्तुं भोगेहि परिक्खिपित्वा तस्स फणमत्थके अत्तनो फणं ठपेत्वा सिनेरुना सद्धिं अभिनिप्पीलेसि । नागराजा पधूमायि । थेरो पि "न तुय्हं येव सरीरे धूमो अत्थि, महं पि अत्थी " ति पधूमायि । नागराजस्स धूमो थेरं न बाधति, थेरस्स पन धूमो नागराजानं बाधति । ततो नागराजा पज्जलि। थेरो पि "न तुम्हं येव सरीरे अग्गि अत्थि, मय्हं पि अत्थी " ति पज्जलि | नागराजस्स तेजो थेरं न बाधति, थेरस्स पन तेजो नागराजानं बाधति ।
सात बार लपेट कर फन को ऊपर उठाया एवं त्रायस्त्रिश भवन को फन से जकड़ कर झुकाते हुए अदृश्य कर दिया ।
३४. तब आयुष्मान् राष्ट्रपाल ने भगवान् से यह कहा - " भन्ते ! पहले तो मैं इस स्थान पर स्थित सुमेरु को देखता था, सुमेरु की मेखला को देखता था, त्रायस्त्रिंश को देखता था, वैजयन्त को देखता था, उस पर लगी ध्वजा को देखता था । भन्ते ! अब कौन हेतु है, कौन सा प्रत्यय है, जिससे अब न तो सुमेरु को देख रहा हूँ, ... पूर्ववत्... न वैजयन्त प्रासाद के ऊपर ध्वजा देख रहा हूँ?"
'राष्ट्रपाल ! यह नन्दोपनन्द नागराज है, जिसने तुम पर कुपित होकर सुमेरु को कुण्डली से सात बार लपेट कर ऊपर की ओर फण से ढँककर अन्धकार कर दिया है।" " भन्ते ! इसका दमन करूँगा।"
भगवान् ने अनुमति नहीं दी। तब आयुष्मान् भद्रिय, आयुष्मान् राहुल - यों क्रम से सभी भिक्षु उठे। भगवान् ने अनुमति नहीं दी ।
३५. अन्त में महामौद्गल्यायन स्थविर ने कहा - " भन्ते ! मैं इसका दमन करूँगा ।" “दमन करो, मौद्गल्यायन" - यों भगवान् ने अनुमति दे दी। स्थविर ने अपना रूप त्यागकर विशाल नागराज का रूप धारण किया, एवं नन्दोपनन्द को कुण्डली से चौदह बार लपेट कर उसके फण के ऊपर अपना फन रखकर, सिनेरु के साथ ही साथ दबाने लगे। नागराज धुँआ छोड़ने लगा । स्थविर भी “तुम्हारे ही शरीर में धुआँ नहीं है, मुझमें भी है" - यों कहते हुए धुआँ छोड़ने लगे। नागराज के धुएँ से स्थविर को कष्ट नहीं होता था, किन्तु स्थविर के धुएँ से नागराज को कष्ट होता था। तब नागराज जलने लगा। स्थविर भी - तुम्हारे ही शरीर में अग्नि नहीं है, मुझमें भी
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