SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इद्धिविधनिद्देसो २८३ ४. अनपनतं चित्तं ब्यापादे न इञ्जती ति आनेझं। ५. अनिस्सितं चित्तं दिट्ठिया न इञ्जती ति आनेझं।६. अप्पटिबद्धं चित्तं छन्दरागे न इञ्जती ति आनेझं। ७. विष्यमुत्तं चित्तं कामरागे न इञ्जती ति आनेझं। ८. विसंयुत्तं चित्तं किलेसे न इञ्जती ति आनेझं। ९. विमरियादीकतं चित्तं किलेसमरियादे न इञ्जती ति आनेझं। १०. एकत्तगतं चित्तं नानत्तकिलेसे न इञ्जती ति आनेझं। ११. सद्धाय परिग्गहितं चित्तं अस्सद्धिये न इञ्जती ति आनेझं। १२. विरियेन परिग्गहितं चित्तं कोसज्जे न इञ्जती ति आनेझं। १३. सतिया परिग्गहितं चित्तं पमादे न इञ्जती ति आनेझं। १४. समाधिना परिग्गहितं चित्तं उद्धच्चे न इञ्जती ति आनेझं। १५. पाय परिग्गहितं चित्तं अविजाय न इञ्जती ति आनेझं। १६. ओभासगतं चित्तं अविज्जन्धकारे न इञ्जती ति आनेझं। इद्धिया इमानि सोळस मूलानि इद्धिलाभाय..पे०...इद्धिवेसारज्जाय संवत्तन्ती" (खु० ५/ ४६८) ति। कामं च एस अत्थो "एवं समाहिते चित्ते" ति आदिना पि सिद्धो येव, पठमज्झानादीनं पन इद्धिया भूमि-पाद-पद-मूलभावदस्सनत्थं पुन वुत्तो। पुरिमो च सुत्तेसु आगतनयो, अयं पटिसम्भिदायं। इति उभयत्थ असम्मोहत्थं पि पुन वुत्तो। (४) आणेन अधिगृहन्तो ति। स्वायमेते इद्धिया भूमि-पाद-पद-मूलभूते धम्मे सम्पादेत्वा अभिज्ञापादकं झानं समापज्जित्वा वुट्ठाय सचे सतं इच्छति, 'सतं होमि सतं होमी' ति परिकम्म से विचलित नहीं होता, इसलिये अविचलित होता है। २. अनुन्नत चित्त औद्धत्य से विचलित नहीं होता, अत: अविचलित होता है। ३. अनभिनत (न खिंचा हुआ) चित्त राग से विचलित नहीं होता, अतः अविचलित होता है। ४. वितृष्णारहित चित्त व्यापाद से विचलित नहीं होता...। ५. अनि:सृत (स्वतन्त्र) चित्त (मिथ्या) दृष्टि से विचलित नहीं होता... । ६. अप्रतिबद्धचित्त छन्दराग से विचलित नहीं होता। ७. मुक्तचित्त कामराग से विचलित नहीं होता, अतः अविचलित होता है। ८. (क्लेश आदि से) विसंयुक्तचित्त क्लेश से विचलित नहीं होता...९. अमर्यादित (असीमित) चित्त क्लेशमर्यादा से विचलित नहीं होता...। १०. किसी एक (आलम्बन) में लगा हुआ चित्त अनेक क्लेशों से विचलित नहीं होता... । ११. श्रद्धा द्वारा परिगृहीत चित्त अश्रद्धा से विचलित नहीं होता... । ११. श्रद्धा द्वारा परिगृहीत चित्त अश्रद्धा से विचलित नहीं होता... । १२. वीर्य द्वारा परिगृहीत चित्त आलस्य से विचलित नहीं होता... । १३. स्मृति द्वारा परिगृहीत चित्त प्रमाद से विचलित नहीं होता... । १४.. समाधि परिगृहीत चित्त अविद्या से विचलित नहीं होता... । १५. प्रज्ञा द्वारा परिगृहीत चित्त अविद्या से विचलित नहीं होता... । १६. प्रभास्वर चित्त अविद्या रूपी अन्धकार से विचलित नहीं होता, अतः अविचलित होता है। ऋद्धि के ये सोलह मूल ऋद्धि-लाभ के लिये...पूर्ववत्...ऋद्धि वैशारद्य के लिये होते हैं।" (खु० नि० ५/४६८)। यद्यपि यह अर्थ "एवं समाहिते चित्ते" आदि द्वारा भी सिद्ध ही हैं, तथापि यह दिखाने के लिये कि प्रथम ध्यान आदि ऋद्धि के भूमि-पाद-पद-मूल है, पुनः यहाँ कहा गया है। पहला सूत्रों में आया हुआ है, और यह प्रतिसम्भिदा (पटिसम्भिदा) में। अतः दोनों अर्थों के बीच भ्रम न हो, इसलिये पुनः कहा गया है। (४) ज्ञान द्वारा अधिष्ठान करते हुए वह योगी ऋद्धि के भूमि-पाद-पद-मूल-इन धर्मों का सम्पादन करके, अभिज्ञा के आधारभूत ध्यान में समापन होकर, पुनः उठकर यदि सौ (रूपों) की
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy