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________________ इद्धिविधनिसो हुत्वा इद्धिं पापुणाति, तस्मा इमिना परियायेन इद्धिलाभाय संवत्तनतो सम्भारभूमियो वेदितब्बानि। चतुत्थज्झानं पन इद्धिलाभाय पकतिभूमि येव । (१) चत्तारो पादाति । चत्तारो इद्धिपादा वेदितब्बा । वुत्तं हेतं - "इद्धिया कतमे चत्तारो पादा ? इध भिक्खु छन्दसमाधिपधानसङ्घारसमन्नागतं इद्विपादं भावेति, विरिय... पे०... चित्त... वीमंसासमाधिपधानसङ्ग्रारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति । इद्धिया इमे चत्तारो पादा इद्धिलाभाय ...पे..... इद्धिवेसारज्जाय संवत्तन्ती" (खु० नि० ५ / ४६८ ) ति । २८१ एत्थ च छन्दहेतुको छन्दाधिको वा समाधि छन्दसमाधि । कत्तुकम्यताछन्दं अधिपतिं करित्वा पटिलद्धसमाधिस्सेतं अधिवचनं । पधानभूता सङ्घारा पधानसङ्घारा । चतुकिच्चसाधकस्स सम्मप्पधानविरियस्सेतं अधिवचनं । समन्नागतं ति । छन्दसमाधिना च पधानसङ्घारेहि च उपेतं । इद्विपादं ति । निप्फत्तिपरियायेन वा इज्झनट्ठेन, इज्झन्ति एताय सत्ता इद्धा वुद्धा उक्कसगता होन्ती ति इमिना वा परियायेन इद्धी ति सङ्खं गतानं अभिज्ञाचित्तसम्पयुत्तानं छन्दसमाधिपधानसङ्घारानं अधिट्ठानट्ठेन पादभूतं सेसचित्त- चेतसिकरासिं ति अत्थो । वुत्तं हेतं“इद्धिपादो ति तथाभूतस्स वेदनाक्खन्धो...पे... विञ्ञाणक्खन्धो" (अभि० २ / २६५) ति । ऋद्धिलाभ के लिये, प्रतिलाभ के लिये, विकुर्वण के लिये, ऋद्धि की विशदता के लिये, वश में करने के लिये, इसके वैशारद्य के लिये होती है।" (खु० नि० ५/४६७)। (यह योगी) प्रीति एवं सुख के विस्तार द्वारा सुखसंज्ञा एवं लघुसंज्ञा (सुख एवं भारहीनता का अनुभव) से ओत-प्रोत होकर लघु, मृदु कर्मण्य काय वाला होकर इसे प्राप्त करता है । इसीलिये पूर्व के तीन ध्यानों को सम्भार ( सहायक ) भूमि माना जाना चाहिये; क्योंकि वे इसके लाभार्थ इस प्रकार प्रवर्तित होते हैं । किन्तु चतुर्थ ध्यान तो इसके लाभ के लिये स्वाभाविक भूमि ही है। (१) चार पाद को चार ऋद्धि-पाद समझें; क्योंकि यह कहा गया है- " ऋद्धि के कौन-से चार पाद हैं? यहाँ भिक्षु छन्दसमाधिप्रधानसंस्कार से युक्त ऋद्धिपाद की भावना करता है, वीर्य .. पूर्ववत् ... चित्त...मीमांसा - समाधिप्रधानसंस्कार से युक्त ऋद्धिपाद की भावना करता है। यों ये चार ... पाद ऋद्धि-लाभ के लिये ... पूर्ववत्... उसके वैशारद्य के लिये होते हैं।" (खु० नि० ५ / ४६८ ) । इनमें, जिसका हेतु छन्द होता है, या जिसमें छन्द का आधिक्य होता है, वह समाधि छन्दसमाधि है। कर्तृकाम्यता - छन्द को प्रधान बनाकर प्राप्त की गयी समाधि का यह अधिवचन है। प्रधानभूत संस्कार=प्रधान संस्कार । चार कृत्यों के साधक, सम्यक्प्रधान अर्थात् वीर्य का यह अधिवचन है। समन्वागत - छन्दसमाधि से एवं प्रधानसंस्कार से युक्त | ऋद्धिपाद निष्पत्ति के पर्याय (के रूप ) में, सिद्ध होने के अर्थ में या इस अर्थ में कि इसके द्वारा सत्त्व सिद्धि प्राप्त करते हैं, वृद्धि प्राप्त करते हैं, उन्नति करते हैं। ऋद्धि संज्ञा को प्राप्त करने वाले अभिज्ञा चित्त से युक्त, छन्दसमाधिप्रधान संस्कार के अधिष्ठान के रूप में आधारभूत शेष चित्त चैतसिक - यह अर्थ है। क्योंकि कहा गया है- "ऋद्धिपाद वैसे का वेदना स्कन्ध .. पूर्ववत्... विज्ञानस्कन्ध है" (अभि० २ / २६५) ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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