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________________ इद्विविधनिसो २६९ तस्मा यथा पिळन्धनविकतिं कत्तुकामो सुवण्णकारो अग्गिधमनादीहि सुवण्णं मुदुं कम्म कत्वा व करोति, यथा च भाजनविकतिं कत्तुकामो कुम्भकारो मत्तिकं सुपरिमद्दितं मुदुं कत्वा करोति; एवमेव आदिकम्मिकेन इमेहि चुद्दसहाकारेहि चित्तं परिदमेत्वा छन्दसीसचित्तसीस-विरियसीस-वीमंसासीससमापज्जनवसेन चेव आवज्जनादिवसीभाववसेन च मुदुं कम्मञ्जं कत्वा इद्धिविधाय योगो करणीयो । पुब्बहेतुसम्पन्नेन पन कसिणेसु चतुत्थज्झानमत्ते चिण्णवसिना पिकातुं वट्टति । यथा पनेत्थ योगो कातब्बो, तं विधिं दस्सेन्तो भगवा "सो एवं समाहिते चित्ते" ति आदिमाह । ६. तत्रायं पाळिनयानुसारेनेव विनिच्छयकथा । तत्थ सो ति । सो अधिगतचतुत्थज्झानो योगी । एवं ति । चतुत्थज्झानक्कमनिदस्सनमेतं । इमिना पठमज्झानाधिगमादिना कमेन चतुत्थज्झानं पटिलभित्वा ति वृत्तं होति । समाहिते ति । इमिना चतुत्थज्झानसमाधिना समाहिते । चित्ते ति । रूपावचरचित्ते । परिसुद्धे ति आदीसु पन उपेक्खासतिपारिसुद्धिभावेन परिसुद्धे । परिसुद्धत्ता येव परियोदाते। पभस्सरे ति वुत्तं होति । सुखादीनं पच्चयानं घातेन विहतरागादिअङ्गणत्ता अनङ्गणे । अनङ्गणत्ता येव विरातूपक्किलेसे। अङ्गणेन हि तं चित्तं उपक्किलिस्सति । सुभावितत्ता मुदुभूते । ५. किन्तु पहले (पूर्व जन्मों में) बहुत अधिक योग-साधना कर चुके बुद्ध, प्रत्येकबुद्ध, अग्रश्रावक आदि को, उक्त प्रकार के इस भावनाक्रम के विना भी, अर्हत्त्व -लाभ के साथ ही यह ऋद्धिविकुर्वण एवं पटिसम्भिदा आदि अन्य गुण भी सिद्ध हो जाते हैं। अतः जैसे कोई आभूषण बनाने की इच्छा करने वाला स्वर्णकार आग में पिघलाने आदि कर्म द्वारा स्वर्ण को मृदु ( लचीला ) एवं उपयोग के योग्य बनाता है, एवं जैसे पात्र पकाने की इच्छावाला कुम्भकार मिट्टी को अच्छी तरह मलकर, मुलायम करके (ही ऐसा ) करता है; वैसे ही प्रारम्भिक योगी को इन चौदह प्रकारों में चित्त का दमन कर छन्द, चित्त, वीर्य, मीमांसा - इन शीर्षकों (से बतलाये गये गुणों) की प्राप्ति द्वारा एवं चित्त को विषयोन्मुख करने (= आवर्जन) आदि में कुशलताप्राप्ति द्वारा (चित्त को) मृदु एवं कर्मण्य बनाकर ऋद्धिविध - प्राप्तिहेतु योग करना चाहिये। किन्तु जो योगी पूर्व हेतु से सम्पन्न हो, वह कसिणों में चतुर्थ ध्यान मात्र कुशलता प्राप्त करने से भी ( ऐसा ) कर सकता है। योग कैसे करना चाहिये ? - इसे दरसाते हुए भगवान् ने 'सो एवं समाहिते चित्ते' आदि (विसु० म० पृ० २६४) कहा है। ६. यहाँ पालिनय के अनुसार अर्थ का निश्चय इस प्रकार है इनमें, सो - चतुर्थ ध्यान प्राप्त वह योंगी। एवं - यह चतुर्थ ध्यान के प्राप्ति-क्रम का निदर्शन है। अर्थात् इस प्रथम ध्यान की प्राप्ति आदि के क्रम से चतुर्थ ध्यान को प्राप्त करके । समाहितेइस चतुर्थ ध्यान समाधि में समापन । चित्ते - रूपावचर चित्त में | किन्तु 'परिशुद्ध होने पर' (परिसुद्धे) आदि में - उपेक्षा द्वारा स्मृति की परिशुद्धि के अर्थ में परिसुद्धे । परिशुद्ध होने से ही परियोदाते, अर्थात् प्रभास्वर । सुख आदि (राग आदि के) प्रत्ययों के नष्ट हो जाने से राग आदि दोषों के (भी) नष्ट हो जाने से अनङ्गणे । निर्दोष होने से ही विगतूपक्किलेसे। क्योंकि दोष से ही वह चित्त उपक्लिष्ट होता है। सुभावित (सुविकसित) होने से मृदुभूते ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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