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________________ समाधिनिद्देसो २४३ मं ब्यापेत्वा ठितं' ति, न पि अबद्धपित्तं जानाति–'अहं सरीरं ब्यापेत्वा ठितं' ति। यथा वस्सोदकेन पुण्णे कोसातकीकोसके न कोसातकीकोसको जानाति–'मयि वस्सोदकं ठितं' ति, न पि वस्सोदकं जानाति–'अहं कोसातकीकोसके ठितं' ति; एवमेव न पित्तकोसको जानाति–'मयि बद्धपित्तं ठितं' ति, न पि बद्धपित्तं जानाति–'अहं पित्तकोसके ठितं' ति। अचमचं आभोगपच्चवेक्खणरहिता एते धम्मा। इति पित्तं नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो यूसभूतो' आबन्धनाकारो आपोधातू ति।। सेम्हं एकपत्तपूरणप्पमाणं उदरपटले ठितं। तत्थ यथा उपरि सञ्जातफेणपटलाय चन्दनिकाय न चन्दनिका जानाति–'मयि फेणपटलं ठितं' ति, न पि फेणपटलं जानाति'अहं चन्दनिकाय ठितं' ति; एवमेव न उदरपटलं जानाति–'मयि सेम्हं ठितं' ति, न पि सेम्हं जानाति–'अहं उदरपटले ठितं' ति। अञमजं आभोगपच्चवेक्षणरहिता एते धम्मा। इति सेम्हं नाम इमस्मि सरीरे पाटियक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो यूसभूतो आबन्धनाकारो आपोधातू ति। पुब्बो अनिबद्धोकासो यत्थ यत्थेव खाणुकण्टकप्पहरणअग्गिजालादीहि अभिहते सरीरप्पदेसे लोहितं सण्ठहित्वा पच्चति, गण्डपिळकादयो वा उप्पजन्ति, तत्थ तत्थ तिट्ठति । तत्थं यथा फरसुप्पहारादिवसेन पग्घरितनिय्यासे रुक्खे न रुक्खस्स पहारादिप्पदेसा जानन्ति'अम्हेसु निय्यासो ठितो' ति, न पि निय्यासो जानाति–'अहं रुक्खस्स पहारादिप्पदेसेसु ठितो' रहता है। बद्ध पित्त पित्तकोष (पित्ताशय 'गाल ब्लेडर') में स्थित होता है। जैसे यदि तेल पुए में व्याप्त हो, तो पुआ नहीं जानता–'तैल मुझमें व्याप्त होकर स्थित है', न ही तैल जानता है'मैं पुए में व्याप्त होकर स्थित हूँ'; वैसे ही न तो शरीर जानता है-'अबद्ध पित्त मुझे व्याप्त कर स्थित है', न ही अबद्ध पित्त जानता है-'मैं शरीर को व्याप्त कर स्थित हूँ'। जैसे यदि नेनुआ के कोष (भीतरी जालीदार भाग) में वर्षा का जल भरा हुआ हो, तो नेनुआ का कोष नहीं जानता'मुझमें वर्षा का जलं स्थित है', न ही वर्षा का जल जानता है-'मैं नेनुआ के कोष में स्थित हूँ'; वैसे ही पित्ताशय नहीं जानता–'मुझमें बद्ध पित्त स्थित है, न ही बद्ध पित्त जानता है-'मैं पित्ताशय में स्थित हूँ'। ये धर्म परस्पर सोच-समझ से, प्रत्यवेक्षण से रहित हैं। यों, पित्त इस शरीर का एक विशेष भाग है, जो अचेतन अव्याकृत, शून्य, निःसत्त्व, तरल, बन्धन लक्षण वाली अप्धातु है। . . श्लेष्मा-श्लेष्मा कफ) एक पात्र भर परिमाण में उदर-पटल (सतह) पर स्थित है। जैसे यदि पोखरे के ऊपर फेन की पर्त उत्पन्न हो जाय, तो पोखरा नहीं जानता-'मुझ पर फेन की पर्त स्थित है, न ही फेन की पर्त जानती है-'मैं पोखरे पर स्थित हूँ'; वैसे ही न तो उदरपटल जानता है-'मुझ पर श्लेष्मा है', न ही श्लेष्मा जानता है-'मैं उदर-पटल पर स्थित हूँ', ये धर्म...यों श्लेष्मा अप्-धातु है। पीब-अनिश्चित स्थान वाली पीब वहाँ वहाँ रहती है, जहाँ जहाँ कुश-काँटे गड़ने पर, यो चोट-चपेटे लगने पर, या अग्नि की लपट से शरीर जल जाने पर शरीर के उन-उन भागों में १. यूसभूतो ति। रसभूतो। २. उच्छिट्ठोदकगब्भमलादीनं छड्डुनट्ठानं चन्दनिका, तस्सं चन्दनिकायं।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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