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________________ २३० विसुद्धिमग्गो तेजनवसेन तेजों । वुत्तनयेनेव तेजेसु गतं ति तेजोगतं। किं तं? उण्हत्तलक्खणं । येन चा ति। येन तेजोधातुगतेन कुपितेन अयं कायो सन्तप्पति। एकाहिकजरादिभावेन उसुमजातो होति। येन च जीरियनी ति। येन अयं कायो जीरति, इन्द्रियवेकल्लतं बलपरिक्खयं वलिपलितादिभावं च पापुणाति। येन च परिडव्हती ति। येन कुपितेन अयं कायो डव्हति, सो च पुग्गलो "डव्हामि डव्हामी'' ति कन्दन्तो सतधोतसप्पि-गोसीसचन्दनादिलेपं चेव तालवण्टवातं च पच्चासीसति । येन च असितपीतखायितसायितं सम्मा परिणामं गच्छती ति। येनेतं असितं वा ओदनादि, पीतं वा पानकादि, खायितं व पिखज्जकादि, सायितं वा अम्बपक्कमधुफाणितादि सम्मा परिपाकं गच्छति। रसादिभावेन विवेकं गच्छती ति अत्थो। एत्थ च पुरिमा तयो तेजोधातुसमुट्ठाना, पच्छिमो कम्मसमुट्ठानो व। __ वायनवसेन वायो। वुत्तनयेनेव वायेसु गतं ति वायोगतं । किं तं? वित्थम्भनलक्खणं। उद्धङ्गमा वाता ति। उग्गारहिक्कादिपवत्तका उद्धं आरोहणवाता। अधोगमा वाता ति। उच्चारपस्सावादिनीहरणका अधो ओरोहणवाता। कुच्छिसया वाता ति। अन्तानं बहि वाता। कोट्ठासया वाता ति। अन्तानं अन्तो वाता। अङ्गमङ्गानुसारिनो वाता ति। धमनिजालानुसारेन धारा के रूप में बहता है (अप्पोति), इस-उस स्थान पर बहता है (पप्पोति), अतः आपो (जल) है। 'कर्म से उत्पन्न' आदि नानाविध अप् में गत (समाविष्ट) है, अत: आपोगतं है। वह क्या है? अप्-धातु का 'बाँधना' लक्षण। तेज उष्ण (गर्म) करने के रूप में (परिभाषित) है। पूर्वोक्त विधि के अनुसार ही, जो तेज में गत है, वह तेजोगतं है। वह क्या है? उष्णत्व-लक्षण। येन च-जिस तेज धातु के कुपित हो जाने पर यह शरीर सन्तप्पति (अर्थात् सन्तप्त हो जाता है), एक दिन के लिये ज्वर आदि होने पर उष्ण हो जाता है। येन च जीरियति-जिससे यह शरीर जीर्ण होता है, इन्द्रियविकलता, बल का क्षय, झुर्रा पड़ना, (केशों और रोमों का) पकना आदि होता है। येन च परिडव्हतिजिसके कुपित होने पर यह शरीर जलता है, और वह व्यक्ति 'जल रहा हूँ, जल रहा हूँ'-यों चिल्लाता हुआ सौ बार (शीतल जल से) धोये गये घृत, कपूर (गोशीर्ष) चन्दन आदि का लेप एवं पंखे की हवा आदि चाहता है। येन च असितपीतखायितसायितं सम्मा परिणामं गच्छतिजिसके द्वारा वह खाया हुआ चावल आदि, या पिया हुआ पेय आदि, या चबाया हुआ (आटे से बना खझला एक प्रकार का खाद्य पदार्थ) आदि, या चाटा हुआ पका आम, मधु, राब आदि अच्छी तरह पच जाते हैं। रस आदि के रूप में अलग अलग हो जाते हैं। यहाँ पूर्व के तीन१. जिससे शरीर तपता है, २. जीर्ण होता है, ३. जलता है; तेज धातु से उत्पन्न हैं। अन्तिम (जिससे आहार पचता है) कर्म से ही उत्पन्न है। बहती है अत: वायो (वायु) है। पूर्वोक्त के अनुसार ही, वायुओं में गत (समाविष्ट) है अत: वायोगतं है। वह क्या है ? विष्टम्भन (खिंचाव, विस्तार)-लक्षण। उद्धङ्गमा वाता-डकार, हिचकी आदि के रूप में ऊपर की ओर चढ़ने वाली वायु। अधोगमा वाता-मलमूत्र आदि को बाहर निकालने वाली नीचे उतरने वाली वायु। कुच्छिसया वाता-आँतों के बाहर की वायु। कोट्ठसमा वाता-आँतों के भीतर की वायु। अङ्गमङ्गानुसारिनो वाता-धमनीजाल के अनुसार
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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