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________________ समाधिनिसो २२७ आपोधातु तेजोधातु वायोधातू" ति एवं तिक्खपञ्चस्स धातुकम्मट्ठानिकस्स वसेन महासतिपट्ठाने (दी० नि० २/५२३) सङ्क्षेपतो आगतं। तस्सत्थो - यथा छेको गोघातको वा तस्सेव वा भत्तवेतनभतो अन्तेवासिको गाविं बधित्वा विनिविज्झित्वा चतस्सो दिसा गतानं महापथानं वेमज्झट्ठानसङ्घाते चतुमहापथे कोट्ठासं कत्वा निसिन्नो अस्स; एवमेव भिक्खु चतुन्नं इरियापथानं येन केनचि आकारेन ठितत्ता यथाठितं, यथाठितत्ता च यथापणिहितं कायं 'अत्थि इमस्मि काये पथवीधातु... पे०... वायोधातू' ति एवं धातुसो पच्चवेक्खति । किं वुत्तं होति ? यथा गोघातकस्स गाविं पोसेन्तस्स पि आघातानं आहरन्तस्स पि आहरित्वा तत्थ बन्धित्वा ठपेन्तस्स पि वधेन्तस्स पि वधितं मतं पस्सन्तस्स पि तावदेव गावी ति सञ्च न अन्तरधायति, याव नं पदालेत्वा बिलसो न विभजति । विभजित्वा निसिन्नस्स पन गावीसञ्ञ अन्तरधायति, मंससञ्ञा पवत्तति । नास्स एवं होति - " अहं गाविं विक्किणामि, इमे गाविं हरन्ती" ति। अथ ख्वस्स - " अहं मंसं विक्किणामि, इमे पि मंसं हरन्ति "च्चेव होति । एवमेव इमस्सापि भिक्खुनो पुब्बे बालपुथुज्जनकाले गिहिभूतस्स पि पब्बजितस्स पि तावदेव सत्तो. ति वा पोसो ति वा पुग्गलो ति वा सञ्ञा न अन्तरधायति, याव इममेव कार्य यथाठितं यथापणिहितं घनविनिब्भोगं कत्वा धातुसो न पच्चवेक्खति । धातुसो पच्चवेक्खतो पन संत्तसञ्ज्ञ अन्तरधायति, धातुवसेनेव चित्तं सन्तिट्ठति । तेनाह भगवा - " सेय्यथापि, भिक्खवे, चाहे वह जैसे भी स्थित हो, जिस अवस्था में हो, धातुओं के अनुसार यों प्रत्यवेक्षण करता हैइस काया में पृथ्वीधातु, अब्धातु, तेजोधातु एव वायुधातु हैं । " उसका अर्थ है - जैसे कुशल गोघातक या उसका वेतनभोगी शिष्य बैल को मारकर, बोटीबोटी काटकर चारों दिशाओं को जाने वाले राजमार्ग के मध्यस्थान कहे जाने वाले चौराहे पर (गोमांस a) टुकड़े-टुकड़े करके बैठा हो, वैसे ही भिक्षु चारों ईर्य्यापथों में से जिस किसी प्रकार में स्थित होने से यथास्थित, यथास्थित होने से ही यथाप्रणिहित (समाधिस्थ) काया के बारे में "इस काया में पृथ्वीधातु... वायुधातु हैं" - यों धातु के अनुसार प्रत्यवेक्षण करता है। तात्पर्य यह है - जैसे कि गोघातक जब गाय को पालता है तब भी, वधस्थल पर ले जाता है तब भी, वहाँ बाँधे रखता है तब भी, वध करता है तब भी, और वध के बाद (उसे) मरी हुई देखता है तब भी 'गाय' की संज्ञा का लोप नहीं हुआ रहता; लोप तो तभी होता है जबकि उसे काटकर टुकड़े-टुकड़े कर देता है। टुकड़े-टुकड़े करके बैठे हुए (कसाई) के लिये 'गो' संज्ञा का लोप हो जाता है, 'मांस' की संज्ञा प्रवृत्त होती है । उसे ऐसा नहीं लगता - "मैं बैल को बच रहा हूँ, या ये लोग बैल को ले जा रहे हैं", अपितु उसे लगता है- 'मैं मांस बेच रहा हूँ। ये लोग भी मांस ले जा रहे हैं।" वैसे ही यह भिक्षु पूर्वकाल में जब बाल - पृथग्जन या गृहस्थ था तब भी, प्रव्रजित हुआ तब भी ( उसके लिये स्वयं के बारे में) सत्त्व, पुरुष या पुद्गल - संज्ञा का लोप नहीं हो सका। यह (लोप) तब तक नहीं होता जब तक कि यथास्थित, यथाप्रणिहित इसी का का स्थूल (महाभूतों) में निर्धारण करते हुए धातुओं के रूप में प्रत्यवेक्षण नहीं करता । धातुओं के रूप में प्रत्यवेक्षण करने १. बिलसो ति । बिलं बिलं कत्वा । रूप
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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